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खींचता जाए है मुझे

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कई बार इंसान न चाहते हुए भी किसी ओर खिंचा चला जाता है. बकौल ग़ालिब के ..

खुदाया ! जज्बए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूं और खिंचता जाए है मुझसे

बैठकबाजी के साथ भी यही बात है.आप जितना बैठकबाजी से दूर रहना चाहते हैं,यह उतनी ही तेजी से आपको अपनी ओर खींचती है.बैठकबाजी की महिमा अपरंपार है और जितने भी किस्म की बाजियां अपने देश में प्रचलित हैं,उन सबमें बैठकबाजी सर्वाधिक लोकप्रिय एवं श्रेष्ठ है.इसका अपना अलग ही आनंद है.

इस स्वर्गिक आनंद को वही समझ सकते हैं,जिन्होंने कभी इसका लुत्फ़ उठाया है.बाईबिल की भाषा में कहा जा सकता है – “वे धन्य हैं जिन्होंने बैठकबाजी की है.”और जिन्हें कभी बैठकबाजी का अवसर ही नसीब नहीं हुआ उनके लिए ‘तू क्या जाने वाइज कि तूने पी ही नहीं.’

अपने देश में बैठकबाजी की एक सुदीर्घ परंपरा है जो आदि काल से आज तक न केवल जीवित है,बल्कि निरंतर विकासशील है.बैठकबाजी वस्तुतः हमारी विरासत है,हमारी पहचान है.यह हमारी रग-रग में बसी है.औसत हिन्दुस्तानी स्वभाव से ही बैठकबाज होता है.जब तक वह दो-चार बैठकबाजी न कर ले उसका खाना नहीं पचता.

अपने देश का यह परम सौभाग्य है कि अपने यहां एक से एक इतिहास प्रसिद्ध बैठकबाज हुए हैं.आज भी देश में बैठकबाजों की कमी नहीं है.गांव की चौपालों से लेकर देश की संसद तक बैठकबाजों के एक से एक नायाब नमूने बिखरे पड़े हैं.कैसी भी समस्या हो,बैठकबाजी के बिना उसका कोई हल नहीं निकल सकता.बैठकबाजी हमारे सारे मुद्दों का इलाज है.

दुष्यंत कुमार सही फरमाते हैं.......

भूख है तो सब्र कर,रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल जेरे बहस,दिल्ली में है ये मुद्दआ

बैठकबाजी को विज्ञान माना जाय या कला इसके विषय में विद्वानों में मतभेद हैं.कुछ विद्वान इसे कला मानते हैं तो कुछ कला.इसके साथ ही एक वर्ग समन्यवादी विद्वानों का भी है जो इसे विज्ञान और कला दोनों मानते हैं.

बैठकबाजी की कई शैलियां हैं.इनमें सबसे महत्वपूर्ण है – बैठकबाजी की सरकारी शैली.इस शैली के  विकास में केंद्र और राज्य दोनों का बराबर का योगदान है.बैठकबाजी वस्तुतः सरकारी कार्यप्रणाली का एक अभिन्न अंग है.बिना बैठकों के सरकार का कोई काम आगे नहीं खिसकता.इसका दुहरा उपयोग है.काम को करने और न करने दोनों के लिए बैठकबाजी का इस्तेमाल किया जा सकता है.

किसी मामले को लटकाने का सबसे बेहतरीन तरीका है उसे किसी समिति या आयोग के सुपुर्द कर दिया जाय.बैठकों पर बैठकें होती रहेंगी और मामला हिन्दुस्तानी अदालतों में फंसे मुकदमों की तरह बरसों खिंचता रहेगा और जब तक फैसला होगा तब तक मुद्दई और मुद्दालेह दोनों ही न रहेंगे.यानि मर गया सांप और लाठी भी न टूटी.

बैठकबाजी के लिए प्रसिद्ध एक राष्ट्रीय आयोग को हाल ही में भंग किया गया जो अपने कार्यों से ज्यादा महंगे शौचालय के निर्माण के लिए चर्चित रहा.इसके स्थान पर सरकार ने बैठकबाजी का एक और अड्डा बना दिया.पढ़े-लिखे विशेषज्ञ जमात की भी तो कुछ जरूरतें होती हैं.इनका भी ध्यान रखना जरूरी होता है.

बैठकबाजी से एक स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण के विकास में भी मदद मिलती है.परिपाटी के अनुसार देश के किसी एक छोर पर स्थित कार्यालय की किसी समिति की बैठक देश के किसी दूसरे छोर पर आयोजित की जाती है और हर बार बैठक का केंद्र बदलता रहता है.इससे सामान्य सदस्यों को देश भ्रमण के या यों कहें देश-दर्शन के अवसर प्राप्त होते रहते हैं,जिससे क्षेत्रीयता जैसी संकीर्ण भावना के उन्मूलन में मदद मिलती है.अब तो इस दिशा में विदेश भ्रमण का नया क्षितिज खुला है.इससे निश्चय ही अंतर्राष्ट्रीय समझ और भाईचारे के विकास में मदद मिलेगी.

बैठकबाजी में विमान कंपनियों और पंचतारा होटलों को बिजनेस मिलता है जो नागर विमानन और होटल व्यवसाय के विकास में सहायक है.यहां भारतीय रेल को मिलने वाले कारोबार का उल्लेख इसलिए नहीं किया जा रहा क्योंकि बैठकबाजी के लिए रेल यात्रा का प्रतिशत विमान यात्रा की तुलना में नगण्य है.

बैठकबाजी प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय बढ़ाने में भी सहायक है.बैठकों में भाग लेने वालों के लिए आने-जाने,खाने-पीने,ठहरने आदि की व्यवस्था तो सरकारी खर्च पर होती ही है,आयकर मुक्त यात्रा भत्ता और काल्पनिक टैक्सी बिलों का भुगतान अलग से होता है.कुछ लोगों ने यात्रा बिल तैयार करने में अच्छी-खासी विशेषज्ञता हासिल कर ली है.

बैठकें सामान्य सदस्यों के पारिवारिक जीवन की दृष्टि से भी उपयोगी हैं.साहब के साथ मेम साहब और बाबा लोगों का भी भ्रमण हो जाता है यानि उनके लिए यह सरकारी पिकनिक होती है.जरूरी शॉपिंग भी हो जाती है और हवा-पानी भी बदल जाता है.बैठकों का इंतजाम भी मौसम देखकर किया जाता है.गर्मियों में होने वाली बैठकें हिल स्टेशनों पर रखी जाती हैं.वैसे इस काम में फ्यूचर प्लानिंग भी बहुत जरूरी है.

बैठकबाजी में आदान-प्रदान की भी काफी गुंजाइश है.आप हमें अपनी कमिटी में रख लें,हम आपको रख लेते हैं.इससे आपसी भाईचारा बढ़ता है.बैठकबाजी का सरकार के लिए एक और उपयोग यह है कि विपक्ष का या अपनी ही पार्टी का जो विधायक या सांसद ज्यादा ‘पिटिर-पिटिर’ करता हो उसे उठाकर डाल दो किसी किसी समिति या उपसमिति में.बच्चू अपने टूर और भत्ते में मगन हो जाएंगे और आप अपना काम निर्विघ्न चलाते रहेंगे.

कुछ लोग आजकल इसलिए ज्यादा आवाज उठाते हैं ताकि उन्हें किसी समिति में रख लिया जाय और कुछ तो इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं कि कब और कैसे किसी समिति में अपना नाम फिट करवाया जाय.सो बैठकबाजी के फायदे ही फायदे हैं.यह भी ध्यान में रखना होगा कि बैठकों में किसी विषय या समस्या पर विशेषज्ञों की राय तो मिल ही जाती है और जो दूसरे लोग विशेषज्ञ नहीं भी होते हैं तो वे इन समितियों में शामिल होकर विशेषज्ञों की जमात में शामिल हो जाते हैं.इस प्रकार राष्ट्रव्यापी विशेषज्ञता का विस्तार और विकास होता है.

तो अगली बार जब आपको किसी समिति में शामिल होने का अवसर मिलता है तो इसके फायदे जरूर याद रखें.

एक मंदिर ऐसा भी

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महाभारत का सबसे उपेक्षित,लांछित और बदनाम पात्र दुर्योधन है.उसे खलनायक कहा गया है.किंतु सत्य तो यही है कि महाभारत की संपूर्ण कथा के केंद्र में जितना वह है,उतना कोई अन्य पात्र नहीं.यदि उसे कथा से निकाल दिया जाय तो महाभारत का आधार ही नष्ट हो जाता है.

हमारे काव्यशास्त्र की ही नहीं,मानव स्वभाव की यही प्रवृत्ति है कि स्तुति-गान विजेता का हो,पराजित का नहीं.और फिर विजेता को नायक बनाकर धीरोदात्तता के जितने काव्यशास्त्रीय लक्षण हैं,वे उस पर आरोपित कर दिए जाएं.वरना ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ के स्थान पर संसार की गति तो यही है कि जहां जय है वहीँ धर्म है.इसी न्याय के अनुसार पांडवों को धर्म का पक्षधर और कौरवों को अधर्म का पक्षधर माना जाता है.

दुर्योधन का अर्थ है – बड़ा कठिन योद्धा.’दुः’ उपसर्ग का इसी अर्थ में प्रयोग दुर्गम,दुर्लभ,दुरारोह आदि शब्दों में होता है.महाभारत में दुर्योधन की भूमिका और उसके कृत्य के कारण वह हिकारत का पात्र ही रहा है.उसकी पूजा- स्थली के बारे में सोचना भी आश्चर्यजनक लगता है.

लेकिन हमारे देश में एक ऐसा भी स्थान है जहां पर महाभारत के खल-पुरुष दुर्योधन का मंदिर है.वहां उसकी भगवान के रूप में बड़ी भक्ति-भाव से पूजा भी की जाती है.महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के करजत तहसील के अंतर्गत दुरगांव एक छोटा सा गांव है.इसी गांव के एक छोर पर एक मंदिर है,जिसे दुर्योधन भगवान का मंदिर कहा जाता है.इस क्षेत्र के लोगों की भगवान दुर्योधन के प्रति अटूट आस्था है.उनका विश्वास है कि वे उनकी मनोकामनाएं बहुत ही जल्दी पूर्ण करते हैं.

प्रत्येक सात वर्ष के बाद आने वाले अधिक मास में यहां पर बहुत बड़ा मेला लगता है.संपूर्ण भारत में दुर्योधन की मूर्ति वाला यह एकमात्र मंदिर है.दुरगांव का पत्थरों द्वारा निर्मित यह मंदिर एक चबूतरे पर बना हुआ है.इस मंदिर की रचना हेमाड़पंथी मंदिरों के समान है.मंदिर के गर्भगृह में दो शिवलिंग हैं.एक शिवलिंग का आकर गोलाकार है तथा दूसरा शिवलिंग चौकोना है.

मंदिर के ऊपरवाले भाग में दुर्योधन की बैठी हुई अवस्था में मूर्ति विराजमान है.पत्थर की बनी यह मूर्ति दो फुट ऊँची है और इस मूर्ति पर चूना पुता हुआ है तथा वह तैल रंगों से रंगी हुई है.मूर्ति का मुंह पूर्व दक्षिण दिशा की ओर है तथा प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है.इसका शिखर काफी ऊँचा है.अनुमान है कि इस मंदिर का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में हुआ होगा.लेकिन यह मंदिर किसने बनवाया तथा क्यों बनवाया,इस बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है.

आमतौर पर देवी-देवताओं के मंदिरों के प्रवेश द्वार रात्रि में ही बंद रहते हैं,लेकिन इस मंदिर की परंपरा ही कुछ अलग है.इसका प्रवेश-द्वार बरसात के पूरे चार माह तक बंद रहता है.बरसात के प्रारंभ में ही यह प्रवेश-द्वार ईट-पत्थरों से बंद कर दिया जाता है और बरसात का मौसम समाप्त होने के बाद फिर से खोल दिया जाता है.इस तरह भगवान दुर्योधन चार माह कैद रहते हैं.

मंदिर के चार महीने इस प्रकार बंद रहने की परंपरा के बारे में मान्यता यह है कि युद्ध में पांडवों से पराजित होने के बाद दुर्योधन ने अपनी जान बचाने के लिए एक तालाब का आश्रय लिया था.लेकिन तालाब के जल ने दुर्योधन को आश्रय नहीं दिया.परिणामस्वरूप दुर्योधन को मजबूर होकर तालाब से बाहर आना पड़ा.तालाब के इस कृत्य पर दुर्योधन को बहुत गुस्सा आया,जो अभी तक नहीं उतरा है.जलवाहक बादलों को देखकर उन्हें आज भी क्रोध आ जाता है.उनकी क्रोधित आंखें देखकर जलवाहक बादल इस क्षेत्र में बिना बरसे ही भाग जाते हैं.दुर्योधन की दृष्टि इन बादलों पर न पड़े,इसलिए एक मंदिर का प्रवेश-द्वार बरसात के मौसम में बंद रखा जाता है,ताकि इस क्षेत्र में भरपूर वर्षा हो.

दुर्योधन का मंदिर यहां पर क्यूं बनवाया गया,जबकि ऐतिहासिक या पौराणिक दृष्टि से इस स्थान का दुर्योधन के साथ कोई संबंध नहीं है.यह भी कहा जाता है कि दुर्योधन ने इसी स्थान पर भगवान शंकर की आराधना की थी.भगवान शंकर ने दुर्योधन को जो वरदान दिया वह पार्वती को अच्छा नहीं लगा और वह अपने पति से रूठकर रासीन के जंगल में चली गयीं.आज भी वह इसी जंगल में यमाई देवी के नाम से विद्यमान हैं.

आगे चलकर दुर्योधन का पराभव हुआ और महाभारत के युद्ध में भीम के हाथों पूर्ण रूप से परास्त हुआ.उसने अपने अंतिम समय में भगवान शंकर का ध्यान किया.इसलिए भगवान ने दुर्योधन को अपने यहां शरण दी.यही कारण है कि भगवान शंकर के मंदिर में ही दुर्योधन को भी विराजमान किया गया.

यह भी कहा जाता है कि बिहार तथा उड़ीसा की कुछ जनजातियां दुर्योधन को भगवान मानती हैं.दुरगांव में किसी विशेष जाति के लोग भी नहीं रहते,मराठा तथा बंजारी जाति के लोग यहां पर रहते हैं,लेकिन इनमें दुर्योधन की पूजा प्रचलित नहीं है.

दुरगांव जैसे गांव में दुर्योधन का मंदिर पाया जाना तथा दुर्योधन को भगवान के रूप में स्वीकार करना अवश्य ही आश्चर्यजनक है.

वह रहस्यमयी फ़क़ीर

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लोदी गार्डन में सिकंदर लोदी का मकबरा 

कहते हैं कि अपने इल्म,रूप,सौंदर्य पर कभी इतराना नहीं चाहिए,यही कभी आपकी मुसीबत का वाइस बन सकता है.इतिहास के अनेक पन्ने इस तरह की गाथाओं से भरे पड़े हैं.दिल्ली के 90 एकड़ में फैले लोदी गार्डन में मोहम्मद शाह का मकबरा,शीश गुंबद और बड़ा गुंबद है जिसे आर्कियोलोजिकल सोसायटी ऑफ़ इंडिया द्वारा संरक्षित किया गया है.इसी में एक अजीम सुल्तान का मकबरा है जो अपने अप्रतिम सौंदर्य के लिए विख्यात था.

सुल्तान सिकंदर लोदी अपने अद्वितीय सौंदर्य के लिए बहुत प्रसिद्ध था.जो भी उसे देखता,उसके रूप पर मुग्ध हो जाता.उन्हीं दिनों एक फ़क़ीर शेख हसन भी अपनी मस्ती में घूमा करता.वह प्रसिद्ध फ़क़ीर अबुलाला का पोता था.अबुलाला एक पहुंचा हुआ पीर था.उसकी मजार पर हर धर्म के लोग मन्नत मांगने आया करते थे.

एक दिन अचानक शेख हसन ने सिकंदर लोदी को देख लिया.उस दिन के बाद से हर समय शेख हसन सिकंदर लोदी की याद में खोया रहता.खुदा को याद करने के बदले वह हर समय सिकंदर लोदी को याद करता और सुल्तान का प्रारंभिक नाम निजाम खां बार-बार दोहराता.

एक बार शेख हसन निजाम खां से मिलने चल ही पड़ा.पहरेदारों ने शेख हसन को बहुत अदब के साथ रास्ता दे दिया.सर्दियों के दिन थे.सुल्तान अपने निजी कमरे में बैठा हुआ था.वह सुल्तान को अपलक निहारने लगा,अचानक सुल्तान की नजर उस पर पड़ी.

सुल्तान ने हैरानी से पुछा,’कौन हो तुम? इतने पहरेदारों के रहते तुम यहां कैसे पहुंच गए?’

फ़क़ीर बोला’मैं तुम्हारा आशिक हूं.तुम्हारी खूबसूरती देखने आ गया हूं.’ अच्छा ! तो तुम मुझसे इश्क करते हो ?’  सुलतान ने क्रूरता से पूछा.

‘हां मैं तुमसे इश्क करता हूं और खुद को रोक नहीं पाया हूं.’

‘तो थोड़ा आगे आ जाओ.’

फ़क़ीर के आगे आते ही सुल्तान ने उसके सिर पर हाथ रख उसके सिर को पास सुलगती हुई अंगीठी पर झुकाकर टिका दिया.इतने में वहां एक अमीर मुबारक खां लोहानी आ गया.उसने शेख हसन को पहचान लिया और सुल्तान से बोला, ”आपको खुदा का डर नहीं है क्या? इतने पवित्र आदमी से ऐसा व्यवहार कर रहे हैं.’

सुल्तान क्रूरता से बोला,’यह अपने आपको मेरा आशिक कहता है.’ मुबारक खान बोला,’फिर तो आपको अपनी खुशकिस्मती समझना चाहिए कि ऐसा पवित्र आदमी तुम्हें खूबसूरत मानता है.अब उठाओ इसका सर आग से.’

शेख हसन का चेहरा देखते ही सभी लोग आश्चर्य चकित रह गए.आग की लपटों ने उसके चेहरों या बालों पर कुछ भी असर नहीं किया था.

सुल्तान को अब भी चैन नहीं आया था.उसने शेख हसन को जंजीरों में जकड़ कर तहखाने में डलवा दिया.एक हफ्ते बाद सुल्तान को खबर मिली कि फ़क़ीर तो बाजार में नाच रहा है.सुल्तान ने स्वयं इस बात की जांच की.जब कुछ भी समझ नहीं आया तो उसने शेख हसन को बुलवाया और पूछा कि तुम काल कोठरी से बाहर कैसे निकल गए?

शेख हसन बोला,मुझे मेरे दादा की रूह कैदखाने से बाहर निकाल लायी.इसके बाद सुलतान ने शेख हसन का बहुत सम्मान किया और अल्लाह का शुक्र अदा किया कि उससे ज्यादा गलत काम नहीं हुआ.

सिकंदर लोदी ने अंत तक दाढ़ी नहीं रखी.दरअसल उसकी दाढ़ी उगती ही नहीं थी.एक बार हाजी अब्दुल बहाब ने सिकंदर लोदी से दाढ़ी नहीं रखने की वजह पूछा.सुल्तान ने वजह बताया तो पहुंचे हुए फ़क़ीर हाजी ने कहा,लाओ अपना चेहरा.मेरे हाथ घुमाते ही तुम्हारे चेहरे पर इतनी अच्छी दाढ़ी उग आएगी कि सारी दुनियां की दाढ़ियां तुम्हें सलाम ठोकेंगी.

सिकंदर लोदी तिलमिला कर रह गया.हाजी के जाते ही उसने हाजी के बारे में काफी अपमानजनक शब्द कहे.किसी ने यह बात हाजी तक पहुंचा दी.हाजी ने सिकंदर लोदी को श्राप दिया,उसके मेरे प्रति अपमानजनक शब्द अपने ही गले में चिपक जाएंगे.

और सचमुच उसी दिन से सिकंदर लोदी को गले का रोग हो गया.उसका अंत भी इसी रोग से हुआ. 

मैं सितारों के ख्वाब बुनता हूं

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शीराज में हाफिज का मकबरा 
एक शायर की मृत्यु के छह सौ साल बाद भी आज भी उसके देश का कोई ऐसा घर न होगा जहाँ उसके शेर गुनगुनाए न जाते हों,पुस्तक की ऐसी कोई दुकान न होगी जहाँ विभिन्न जगहों से प्रकाशित छोटे बड़े अनेक रूपों में उनका दीवान आज भी दीवानगी की हद तक न बिकता हो.कोई महफ़िल हो या दर्शन उसका उल्लेख लाजिमी है.

वह ईट पर सिर रखकर सोता है और सितारों के ख्वाब बुनता है.आँखों के पानी से सूरज का दामन भिगो सकता है.वह दरवेश भी है और भिखारी भी.पर अपनी टोपी बादशाह के ताज से बदलने को तैयार नहीं.

ये शब्द कहे गए हैं फ़ारसी के अत्यंत लोकप्रिय शायर ‘हाफिज’ के लिए.एक प्रसिद्ध शायर होने के साथ-साथ हाफिज अत्यंत विद्वान,साहित्य के ज्ञाता,साहित्यकार एवं विवेचक भी थे.

हाफिज का जीवनकाल राजनीतिक उथल-पुथल का काल रहा.अपने समय के हालात से हाफिज अछूते नहीं रहे.जब तैमूरलंग इस्फहान के कत्लेआम के बाद शीराज की ओर बढ़ रहा था तो जोशीली शायरी द्वारा हाफिज ने लोगो को एकजुट होकर मुकाबला करने को उकसाया.वह अपने समय के प्रति,अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः सजग थे पर अपनी सीमा में बंधे भी महसूस करते थे,इसी दौरान उन्होंने लिखा था...........

‘हालांकि दिल आग से जलकर ख़ाक हो रहा है
पर अपने लबों पर आये लहू को चाटकर खामोश हूं’

हाफिज की कलम से छह हजार से अधिक शेरों ने जन्म लिया.उनमें दर्शन का निचोड़ है एवं उनके पास अन्तर्भेदी दृष्टि है.प्रायः गजल में छह से लेकर पंद्रह शेर होते हैं पर बहुत अच्छी गजलों में ही इन सबमें एक विचार की निरंतरता रहती है.जबकि हाफिज की सभी गजलों में विचार की अटूट कड़ी पायी जाती है.उनमें मानवता के प्रति प्यार एवं आम आदमी की समस्याओं के प्रति सहानुभूति है.

मध्ययुगीन ईरान के आरामपसंद जीवन एवं बेअमल होते हुए भी स्वयं को महान जतलाने का प्रयत्न करना,इस रवैये के विरुद्ध थे.शायद ही विश्व के किसी एक कवि ने इतने लोगों को इतने लंबे काल तक प्रभावित किया हो.

बंगाल में जिस तरह गुरुदेव रवींन्द्र नाथ टैगोर की काव्य रचनाएं प्रत्येक घर का अभिन्न अंग हैं उसी तरह हाफिज पूरे ईरान निवासियों का पारिवारिक सदस्य है.उनका दीवान कुरान के साथ ही अत्यंत सम्मानपूर्वक रखा जाता है.उनके शेर स्कूल की किताब में भी पाए जाते हैं और महफ़िलों,मयखानों में भी सुनाये जाते हैं.अनपढ़ लोग भी उनमें आनंद पाते हैं एवं विद्वानों की सराहना भी पाते हैं.फारसी के नाटकों,वार्ताओं में आज भी वह बहुधा उद्धृत किये जाते हैं.उनकी भाषा सरल और हृदयस्पर्शी है,उसमें एक अंदरूनी लय है.वह अपने शब्दों को यूं चुनते हैं कि फारसी भाषा का पूरा ज्ञान न होने पर भी ह्रदय को बांध लेती है.

अनेक आलोचक हाफिज की तुलना उनके ही समकालीन ,विश्वप्रसिद्ध इतालवी कवि ‘दांते’ से करते हैं.दांते का दर्शन अधिक ठोस,आसपास की,साधारण जन की सच्चाई पर टिका है पर हाफिज की शायरी में इन सबके साथ ही कल्पना की दिलकश उड़ान है.

एक शेर में उन्होंने अपनी महबूबा के गाल के तिल के बदले बल्ख और बुखारा न्यौछावर करने की बात लिखी थी.तैमूरलंग जिनके अधीन ये दोनों शहर थे,जब वह शीराज पहुंचा तो उसने हाफिज को बुला भेजा और क्रोधित होकर जवाब-तलब किया.हाफिज ने बिना संयम खोये और बिना विचलित हुए उत्तर दिया – ‘जहांपनाह,अपनी इसी दरियादिली के कारण ही तो आप देख रहे हैं कि मैं किस कदर फक्कड़ और खस्ताहाल हो चुका हूँ.’

हाफिज की प्रसिद्धि उनके जीवन काल में ही तमाम देशों के साथ हिंदुस्तान भी पहुंची.हिंदुस्तान के दो शासकों मोहम्मद शाह दकिनी और ग्यासअलदीन ने भी उसे बुलाने के लिए राह खर्च भेजा पर वे अपनी मातृभूमि और रुकना नदी का किनारा छोड़कर कहीं जाने को राजी नहीं हुए.दरवेशों और विद्वानों का संग उन्हें बहुत प्रिय था.

हाफिज को शीराज बहुत प्रिय था,जुनून की हद तक प्रिय.कहते हैं वह जीवन में बस एक बार ही शीराज से बाहर गए.बादशाहों के निमंत्रण पर तो नहीं लेकिन भारत के आध्यात्मिक ज्ञान ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और उसी का अध्ययन करने भारत जाने का निश्चय किया पर जब बंदरगाह पहुंचे तो मौसम की खराबी के कारण उस दिन जहाज रवाना नहीं हो सका.विधि का आदेश समझ कर लौट गए और फिर कभी कहीं नहीं गये.

शहरवासियों का अपने शायर के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा ही है कि 1392 में हाफिज की मृत्यु के पश्चात जब उस पर मकबरा बनवाया गया तो शीराज की पुरानी लूटमार और तोड़फोड़ याद करके किसी हमशहरी ने मकबरे की दीवार पर यह शेर लिख दिया..........

‘अगरच जमलः उकाफ शहर गारत करद
खुदाश खैर दहाद आन के इन इमारत करद’

‘पूरे शहर को भी चाहे लूट लेना,पर मेहरबानी करके इस इमारत को छोड़ देना.’

जिस रुकना नदी का किनारा उन्होंने अपनी भ्रमण-स्थली बनाया था और जो हाफिज का संग पाकर अमर हो गयी है उसी के किनारे सरू के घने सायों में ही हाफिज की चिरस्थायी विश्रामस्थली भी बनायी गयी.आज की इमारत अंतिम शाह के पिता शाह रजा द्वारा एक फ्रांसीसी इंजीनियर की देखरेख में बनवाई गयी.वह बीस हजार वर्गमीटर से अधिक के घेरे में है.छत पर,खंभों,दीवारों पर,मुख्य कब्र के पत्थर पर हाफिज की गजलों को सुंदर लिखावट में लिखकर अमर कर दिया गया है.

उद्यान के मुख्य द्वार पर हाफिज का अमर सन्देश है.........

‘मेरी कब्र के पास से गुजरना तो हिम्मत रखना
दुनियांभर के स्वतंत्रता–प्रेमियों की यह इबादतगाह होगी’

प्रेम की पराकाष्ठा

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क्या प्रेम की पराकाष्ठा मृत्यदंड या मौत है? अतीत से लेकर वर्तमान तक ऐसे ढेरों वृत्तांत  हैं जो यही दर्शाते हैं कि हर बार ऐसा नहीं होता.

सुदूर दक्षिण की काशी,कांचीपुरी और 11वीं शताब्दी का एक दिन.महाराज सुंदावा के आदेशानुसार आज एक अपराधी को शूली दंड दिया जाना है.हाट-बाजारों,गली-वीथियों में उत्सुक नर-नारियों की भीड़ उमड़ पड़ी है.खुले वधस्थल में राजकीय जल्लाद की देखरेख में शूली गाड़ दी गयी है.बहुत ऊँचे लोहे की नुकीलीदार शूली.ऊपर चढ़ने के लिए शूली से सटाकर लकड़ी की सीढ़ियां लगायी गई हैं.

राजा की सवारी अभी नहीं आई है,मंत्री,न्यायाधीश,सेनापति,सेना की टुकड़ी और राज-कर्मचारियों का हुजूम अपनी जगहों पर कतारबद्ध और सतर्क है.आसपास के भवनों,महालयों के छज्जों पर उत्सुक नर-नारियों की भीड़ लगी है.

आज यहां एक बड़े भयंकर अपराध के लिए एक युवा कवि को शूली पर चढ़ाया जाएगा.उसे शूली पर लिटाकर तब तक रखा जाएगा जबतक कि उसका शरीर मस्तक से बिंधकर नीचे तक नहीं आ पहुँचता है.

अपराध बहुत बड़ा है.एक साधारण घर-द्वार विहीन यायावर युवा कवि ने महाराज सुंदावा की एकमात्र कन्या विद्या के साथ प्रेम करने का अपराध किया है.विद्या को उसने अपने प्रेमजाल में फांस लिया है.

नगाड़े-तुरहियों की ध्वनि गूंजने लगी है.घुड़सवार अंगरक्षकों की की टुकड़ी से घिरा महाराज सुंदावा का काफिला आ पहुंचा है.महाराज अपने सिंहासन पर विराजमान होते हैं.

आज्ञा के लिए उत्सुक मंत्री से महाराज ने कहा,”अपराधी को लाया जाए.”मंत्री के आदेश से कुछ सशस्त्र सैनिक दौड़कर गए और निकट में ही उपस्थित हाथ बंधे अपराधी को लाकर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया.जनसमूह में मौन छा गया.

न्यायाधीश ने खड़े होकर घोषणा की,’अपराधी कवि बिल्हण,तुम अपने देश कश्मीर से भटकते हुए यहां आये और राजकीय संरक्षण प्राप्त किया.मनोरम काव्य रचना कर यश पाया.तुम्हें राजकुमारी विद्या को विभिन्न शास्त्रों-विद्याओं की शिक्षा देने के लिए उनका शिक्षक नियुक्त किया गया.तुमने राजकीय निष्ठा और अपने कर्तव्यों के प्रति छल किया.राजकुमारी को न देखने की चेतावनी और वर्जना के बाद भी तुमने उन्हें चोरों की भांति अपने प्रेमजाल में फंसाने का गुरुतर अपराध किया है.इसके लिए तुम्हें राज्य-विधान के अनुसार शूली का दंड दिया जा रहा है.क्या तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है?”

उपस्थित जनसमूह युवा कवि को देख रहा था.वह जैसे किसी अन्य लोक में पहुंचा हुआ था.उसे अपने तन-बदन की सुधि नहीं लगती थी.अर्धनिमीलित नेत्र,बुदबुदाते हुए होंठ,कन्धों पर बिखरे बाल,भव्य मस्तक और सांचे में ढला हुआ दमकता शरीर.लोग बैचैन थे कि यह सुंदर युवा और यशस्वी कवि यों बुरी मौत का भागी बनेगा.

उससे कई बार पुछा गया,तो जैसे चौंककर होश में आते हुए वह बोला,”जी नहीं,मैंने राजकन्या विद्या से प्रेम किया,अपना तन-मन समर्पित किया,इससे मुझे कोई इंकार नहीं.......”

न्यायाधीश के आदेश से जल्लाद युवा कवि को शूली के साथ सटे लकड़ी की सीढ़ियों पर ले गए.वह ऊपर तक जा चढ़ा और निर्विकार भाव से यों खड़ा हो गया जैसे किसी अन्य को दंड मिला हो उसे, नहीं.

“अपराधी”,तुम अपनी अंतिम इच्छा बताओ,हम यथासंभव पूरी करेंगे और अपने इष्टदेव को याद कर लो,न्यायाधीश का स्वर गूंजा.

युवा कवि चौंक पड़ा.उसके बड़े-बड़े लंबे पलकों वाले नेत्र जैसे मधु में डूबे हुए हों,ऊपर मुंह कर उसने नीले आकाश और मंद वायु में लहराती वृक्षावलियों की हरीतिमा देखी.जैसे नेत्रों के आगे किसी का मोहक मुखमंडल घूम रहा हो.न्यायाधीश के पुनः पूछने पर वह पौरुषमय मधुर कंपित कंठ से गा उठा......

अद्ध्यापि तां कनकचंपकदाम गौरीम्
फुल्लारविंदवदना नवरोमराजिम्
सुप्तोस्थितां मदन विह्वलसाल सांगीम्
विद्या प्रमाद गलितामिव चिंतयामि |

(आज भी सुवर्ण चंपे की माला सी ,गौरवर्ण-विकसित कमल जैसे मुखवाली,नये-नये रोयेंवाली,सोकर जागी कामदेव द्वारा पीड़िता,अलसाये देहवाली उस विद्या को ही मैं याद कर रहा हूं......”)

सारी जनता मुग्ध हो उठी,राज-परिवार के लोग,सैनिक,स्त्री-पुरुष सबके मुख से धन्य-धन्य के शब्द निकलने लगे.महाराज सुंदावा को लगा जैसे कवि के कंठ से निकले वे मधुर स्वर दिकदिगंत को व्याप्त कर गये हों.वह मंत्रमुग्ध हो गये.

युवा कवि सारे जैसे संसार से विलग होकर अपनी उस प्रेयसी की मधुर याद में मग्न गाता जा रहा था....

अद्ध्यापि तां शाशिमुखी नौवनाढ्याम्
पश्यामि मन्मशरान्रिल पीड़ितांगीम्
गात्रापि संप्रति करोमि शुसीतलानि् |

(मैं इस समय भी यदि उस चंद्रमा के समान मुखवाली,उसके गौरवर्ण,मनोहर,लावण्यमय,कामदेव के बाण से पीड़ित शरीर को देख पाऊं तो अपने इस शरीर को सुशीतल कर लूं.....!)

“धन्य कवि, धन्य ! महाराज सुंदावा के मुख से निकला.वह गद्गद् स्वर में बोले,”तुम्हारे जैसे सुप्रसिद्ध कवि को शूली देना अमानवीय कर्म है.तुम नीचे उतर आओ,तुम अवध्य हो... .”

बिल्हण कश्मीरी कवि था,वह दक्षिण देश की कांचीपुरी में कैसे आया,स्पष्ट नहीं.किंतु वह कांची आया और अपने कश्मीरी सौंन्दर्य,काव्यकौशल तथा विद्वता से सबको मुग्ध कर दिया.महाराज सुंदावा ने उसे अपने आश्रम में रखा.उसे अपनी एकमात्र विदुषी पुत्री विद्धोत्तमा को विभिन्न शास्त्रों में पटु बना देने का भार देकर उसका शिक्षक भी नियुक्त किया.

गुरु-शिष्या के बीच पर्दा लगाने की व्यवस्था हुई.बिल्हण से कह दिया गया कि राजपुत्री कुष्ठ रोग से पीड़ित हैं.उन्हें देखना मना है,और दूर ही रह कर शिक्षा देनी है.राजपुत्री को बताया गया कि बिल्हण जन्मांध हैं.कुमारी कन्या के लिए जन्मांध को देखना अनुचित माना जाता है.अतः ऐसे व्यक्ति से आवरण में रहकर ही शिक्षा प्राप्त करनी है.

दिन बीतते गये.बिल्हण ने विद्या को साहित्य,,काव्य,न्याय,मीमांसा,ज्योतिष,व्याकरण आदि विषयों में शिक्षित करना आरंभ किया.दोनों मेधावी थे,विद्या सहज भाव से विभिन्न शास्त्र-उपशास्त्रों में पटुता प्राप्त करती गयी.

परदे के आर-पार से गुरु-शिष्या के बीच संवाद होते रहे.दोनों एक दूसरे को देख नहीं पाते थे,तथापि विद्या पर बिल्हण की विद्वता तथा स्वर माधुर्य का बहुत प्रभाव पड़ा.बिल्हण भी अपनी शिष्या की प्रतिभा से बहुत प्रभावित था.उसके मन में कुष्ठी राजकन्या के प्रति गहरी सहानुभूति थी.विद्या भी पिता का आदेश मानकर उसे देखने की चेष्टा नहीं करती थी.

सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन आरंभ हुआ.चंद्रमा की कलाओं के साथ मनुष्य के तन मन पर पड़ने वाले तरंगों के उद्वेलन के विषय में पढ़ाई हो रही थी.उस दिन विद्या का ध्यान कहीं अन्यत्र था.उसे ठीक तरह से ध्यान न देते पाकर बिल्हण ने क्रुद्ध होकर कहा,”अरी कुष्ठे राजकन्ये,यह सब जानकर क्या करेगी...?”भिमानिनी विद्या को भी क्रोध आ गया,”मुझे कुष्ठी कहने वाले,तुम तो स्वयं जन्मांध हो,जो रूप-सौंदर्य,चंद्रमा की कलाएं नहीं जानता वह सौन्दर्यशास्त्र क्या पढ़ाएगा ?”

बिल्हण ने उत्तेजित होकर पर्दा खींच दिया.पर्दा गिरते ही दोनों एक दूसरे को देखकर ठगे से रह गये.
दो वर्ष निकल गये.शास्त्र शिक्षण की जगह प्रणय-निवेदन होता रहा.विद्या के गर्भ में बिल्हण का अंश पलने लगा.

प्रणय का छिपना दुष्कर होता है.महाराज को भी पता लग ही गया.फलतः आदेश के उल्लंघन तथा राजकुमारी के साथ प्रणय के अपराध में बिल्हण को बंदी बनाकर शूली का दंड दिया गया.राजकुमारी विद्या ने पिता के रो-रोकर बिल्हण का दंड क्षमा करने की प्रार्थना की,किंतु सब व्यर्थ.बिल्हण ने कांची पुरी की गरिमा में कलंक लगाया था.

बिल्हण ने जब शूली के ऊपर भी अपनी अंतिम इच्छा के रूप में वह कविता सुनानी आरंभ की और इष्टदेव की जगह इष्टदेवी विद्या को ही याद किया,तो राजा से लेकर प्रजा तक सभी अभिभूत हो गये.महाराज सुंदावा ने उसके मृत्युदंड को क्षमा कर दिया.

उसने खुद को चोर-जो राजकन्या के अप्रतिम रस का चोर हो – मानकर उन पदों की रचना की. वह ‘चौर पंचाशिकाका कवि बनकर इतिहास में अमर हो गया.महाराज सुंदावा ने उसके अद्भुत समर्पित प्रेम तथा अपनी पुत्री की व्यथा देखकर उन दोनों का विवाह कर दिया.

‘चौर पंचाशिका’ का पहली बार किसी यूरोपियन भाषा फ्रेंच में 1848 में अनुवाद किया गया.इसके बाद कई भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ.एड्विन अर्नौल्ड और मेथर्स द्वारा इसका प्रकाशन ब्लैक मेरिगोल्ड्सके नाम से किया गया. 

अनुवाद के बहाने....

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क्या मूल पुस्तकों के अनुवाद बेहतरीन होते हैं?कम से कम मेरा अनुभव तो इस मायने में कुछ अलग ही रहा है.पिछले दिनों अंग्रेजी की कई पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला और साथ ही उनका हिंदी अनुवाद भी. आज के दौर के कई नामी-गिरामी और बेस्टसेलर लेखकों की कई पुस्तकें बाजार में आई हैं.चेतन भगत,रविंदर सिंह,सुदीप नागरकर,दुर्जोय दत्ता,प्रीति शिनॉय की कई पुस्तकें उपलब्ध हैं.

पाउलो कोएल्हो की अल्केमिस्ट और जाहिर सहित कुछ पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कमलेश्वर ने किया है.चेतन भगत की पिछली तीन पुस्तकों का हिंदी अनुवाद (टू स्टेट्स,मिशन 2020,हाफ गर्लफ्रेंड) सुशोभित शक्तावत ने तथा रविंदर सिंह की तीन पुस्तकों का हिंदी अनुवाद प्रभात रंजन तथा एक पुस्तक का हिंदी अनुवाद बी.बी.सी की पूर्व पत्रकार सलमा जैदी ने किया है.

प्रभात रंजन और सलमा जैदी के अनुवाद बहुत अच्छे रहे हैं.कमलेश्वर का अनुवाद भी बहुत अच्छा है.चेतन भगत की किताबों के हिंदी अनुवाद में कई अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया गया है.ऐसे शब्दों के लिए शायद हिंदी पाठक वर्ग को भी डिक्शनरी की जरूरत पड़ जाय.

मूल अंग्रेजी या अन्य भाषाई पुस्तकों के हिंदी अनुवाद में हिंदी पाठक वर्ग यह तो आशा कर ही सकता है कि उसके मूल भाव यथावत रहें.अंग्रेजी के शब्दों का यथावत प्रयोग इसमें बाधा डालता है.

आज बड़े-बड़े प्रकाशन समूह हैं जो किसी कार्पोरेट कंपनी की तरह काम कर रहे हैं.उनके पास संपादक,अनुवादक से लेकर प्रूफ रीडर तक अनेक कर्मचारियों की फौज होती है.इन सबके बावजूद प्रूफ रीडिंग और अनुवाद की गलतियां पढ़ने का मजा किरकिरा कर देती हैं.

लेखक और प्रकाशन समूह हिंदी के पाठक वर्ग का रोना रोते हैं कि हिंदी भाषा का पाठक वर्ग कम होता जा रहा है लेकिन वे इसकी कमियों को ढूंढने का प्रयास नहीं करते.जरूरत इस बात की है मूल भाषा से हिंदी में अनुवाद करते समय उसके भाव तो यथावत रहें और यथासंभव हिंदी के शब्दों का प्रयोग हो.

पाओलो कोएलो को पढ़ते हुए

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कहा जाता है कि किसी भी समाज की संस्कृति,रीति-रिवाज,धर्म,दर्शन का व्यापक प्रभाव उस समाज के लेखकों,चित्रकारों,कलाकारों,फिल्मों पर भी पड़ता है.कई लेखकों की लेखनी,चित्रकारों के चित्रों,फिल्मकारों की फिल्मों में उनका व्यापक नजरिया सामने आता है जो कहीं न कहीं उसके अपने समाज से भी प्रभावित होता है.पाओलो कोएलो को भी पढ़ने पर ऐसा ही महसूस होता है.

ब्राजीलियन लेखक पाओलो कोएलो वैसे तो रहते रियो(रियो दि जेनेरियो) में हैं.लेकिन उनकी मातृभाषा पुर्तगाली है.उनका अधिकांशतः लेखन इसी भाषा में हुआ है.उनकी लेखनी में उस समाज की प्रथा, परंपरा, धर्म,प्रतीकों,जादू,रहस्यमयी ताकतें जैसे प्रतीकों का खुलकर प्रयोग होता है.उनकी कई पुस्तकों में उनका दर्शन,विचार,इस्लाम,ईसाई धर्म के प्रतीकचिन्हों का प्रयोग हुआ है. 

कोएलो के अल्केमिस्ट को उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जा सकता है जो उनकी सबसे अधिक भाषाओँ में अनुवादित कृति भी है.अन्य कृतियों में जो हिंदी अनुवाद में उपलब्ध हैं,उनमें जाहिर,इलेवन मिनट्स,पेड्रा नदी के किनारे,विजेता अकेला,पोर्ताब्लो की जादूगरनी,ब्रिडा प्रमुख हैं.

अल्केमिस्टसेंटियागो नाम के एक गड़ेरिये और उसके सपनों के हकीकत में में बदल जाने की संघर्षमयी दास्तान है.खजाने की तलाश में वह तमाम बाधाओं को पार कर मिस्त्र के पिरामिड तक जा पहुँचता है.बीच में मिस्त्र के रेगिस्तान को पार करने,शकुनों और ईश्वरीय संकेतों को समझने,कबीलाई संस्कृति और लड़ाईयां,कीमियागर से रोमांचक मुलाकात,कोएलो के विचार,दर्शन सब कुछ एक फंतासी सा लगता है.अल्केमिस्ट में कोएल्हो का एक विचार बार-बार कई पात्रों द्वारा दुहराया गया है जो इस पुस्तक का सूत्र वाक्य भी है.उनके शब्दों में “जब तुम सचमुच किसी वस्तु को पाना चाहते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि उसकी प्राप्ति में मदद के लिए तुम्हारे लिए षड्यंत्र रचती है.”

जाहिरव्यावसायिक रूप से सफल एक लेखक की पत्नी के युद्ध संवाददाता बनने और अचानक गायब हो जाने और उसकी तलाश में लेखक के अनेक देशों की यात्राओं कई लोगों से मिलने,जिनमें मिखाइल नामक एक रहस्यमय व्यक्ति भी है.उसके मिर्गी के दौरे,ईश्वरीय संकेतों के समझने,कहीं-कहीं फणीश्वर नाथ रेणुके परती परिकथाकी याद दिलाते हैं.जहां गांवों-देहातों में इस तरह के चरित्रों की बहुतायत है.किसी ख़ास दिन किसी औरत पर देवी की सवारी का आना और रहस्यमयी वार्तालाप,लोगों की शंकाओं का समाधान धर्मभीरू लोगों के व्यवहार आदि को बखूबी चित्रित करते हैं.यहाँ कोएलो का विचार और दर्शन साथ-साथ चलता है.ऐसे में कहानी धीमी पड़ जाती है और उनका दर्शन कहानी पर भारी पड़ने लगता है.कहीं-कहीं यह बोझिल सा भी लगने लगता है.

इलेवन मिनट्सकोएलो की ख्याति के अनुरूप कृति नहीं है.यह एक वेश्या मारिया की कहानी पर आधारित है.इसके शुरूआती पन्ने शहरों के फुटपाथों पर बिकने वाले अश्लील साहित्य जैसे लगते हैं. ब्राजील के गांवों का सामाजिक यथार्थ और रियो के चकाचौंध भरे जीवन,किशोरावस्था के सपने, गरीबी,वैभवपूर्ण जीवन जीने की लालसा,भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयास शायद अतिरंजित जैसा लगता है.कोएल्हो की कई पुस्तकों पर हॉलीवुड में फ़िल्में भी बनी हैं.लेकिन उनके अन्य पुस्तकों में अल्केमिस्ट जैसा प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता है.

ऐसी तो न थी जिंदगी : इतिहास के दुखद पन्ने

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बंदी बनाए जाते बूढ़े बादशाह 
जो व्यक्ति आने वाले समय को ध्यान में रखकर वर्त्तमान के फैसले लेता है,वह दूरदर्शी कहलाता है.लेकिन जो आने वाले समय तो दूर, वर्त्तमान से भी बेखबर हो उसे क्या कहा जाए? लेकिन, शायद यही नियति होती है.

वे अच्छे गजलगो,निहायत पोशीदा और जहीन इंसान थे.पर,अच्छे शासक के गुण न थे.शायद,अच्छे अभिभावक भी न बन पाए.वतन में दो गज जमीं की तलाश में रंगून की जेल में आखिरी सांस ली.दिल की हसरतें दिल में ही दफ्न हो गईं .........

इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

कितना है बदनसीब ज़फ़रदफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

हालांकि चर्चित इतिहासकार विलियम डेलरिम्पलअपनी किताब ‘दि लास्ट मुग़ल’में लाहौर के शोधकर्त्ता इमरान खान के हवाले से “उम्र-ए-दराज़ से माँग लाए थे चार दिनबहादुर शाह जफ़र के लिखे होने से इंकार करते हैं.

आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के बंदी बनाए जाने के बाद उनके परिवार की स्त्रियों और बच्चियों के साथ जो हश्र हुआ,उसके बारे में शायद इतिहास मौन ही है.बंदी बनाए जाने के पहले बूढ़े बादशाह ने अपनी चहेती शहजादी कुलसुम जमानी बेग़म को याद फ़रमाया.कुलसुम ने तिन दिन से कुछ खाया नहीं था.गोद में वर्ष की एक बच्ची थी.जब वह बादशाह के सामने पहुंची,बादशाह मुसल्के पर बैठे गंभीर मुद्रा में कोई आयत बुदबुदा रहे थे.घूमकर बेटी को देखा,सर पर हाथ रखा और बोले,’कुलसुम,लो अब तुमको खुदा को सौंपा,तुम अपने खाबिंद को लेकर फ़ौरन कहीं चली जाओ,हम भी जाते हैं.’

बादशाह ने शहजादी के पति मिरजा जियाउद्दीन को कुछ जवाहरात देकर विदा किया और उनके साथ अपनी बेगम नूरमहल को भी साथ कर दिया.गांव कौराली पहुंचकर सब रथवान के अतिथि बने,बाजरे की रोटी और छाछ खाने को मिली.अगले दिन गिर्द-नवाह में यह खबर तेजी से फ़ैल गयी कि शाही रथवान के घर बादशाह की शहजादी और बेग़म ठहरी हुई हैं.दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी और उसमें से बहुत से लोगों ने उन्हें लूट लिया.कौराली के जमींदार ने इस लुटे-पिटे काफिले को वहां से निकला.कुलसुम के अनुरोध पर बैलगाड़ी करके काफिला शाही हकीम मीर फैज अली के घर पहुंचा.उन्होंने गोरे फौजियों के भय से रखने से इंकार कर दिया.कौराली का जमींदार शहजादी के अनुरोध पर सबको हैदराबाद के सफ़र पर चल पड़ा.

तीसरे दिन  नदी के किनारे कोयल के नवाब की फौज डेरा डाले मिली.उसने काफ़िले को नदी पार करवा दी.थोड़े ही फासले पर एक खेत के निकट अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ हो गयी.एक गोला खेत में आकर गिरा और फसल में आग लग गयी.मुग़ल शहजादी कंधे से अपनी बच्ची जैनल को लगाये दौड़ने लगी.नूरमहल और हफिल सुल्तान बेहोश होकर गिर पड़ीं.सिर की चादरें पीछे उलझ कर गिर पड़ीं.कुलसुम के आंसू आ गए.नंगे पांव लहूलुहान हो गए.जैसे-तैसे हैदराबाद पहुंचे.वहां भी शांति नहीं मिली.पीत वस्त्र धारण कर सब जोगी बन गए और पानी के जहाज पर बैठ कर मक्का रवाना हो गए.

शाही खानदान की शहजादियों में एक थी चमनआरा.बूढ़े बादशाह की पोती डोली में सवार होकर दिल्ली दरवाजे से बाहर आई.अंग्रेज सिपाहियों ने उनकी डोली रोक ली.उनके भाई जमशेद शाह नामी ने तलवार लेकर सिपाहियों का मुकाबला किया लेकिन घायल होकर पत्थरों पर गिर पड़े.इसी सदमे में उनकी मौत हो गई.सिपाहियों ने सारा माल लूट लिया और एक सिपाही ने अंग्रेज अफसर से चमनआरा को मांग लिया.चमन आरा जो किले में फूलों पर सोती,वह सिपाही के घर गई.नन्हीं सी उम्र थी.पैर दबाने से लेकर रसोई का सारा काम उसे संभालना पड़ा.

शहजादी रुखसाना का भविष्य बहुत दर्नाक साबित हुआ.उसकी उम्र 13 वर्ष थी जब 1857 का विद्रोह हुआ.आखिरी मुग़ल का किले से भागकर हुमायूं के मकबरे में जाना,परिवार पर बिजलियां गिरने जैसा था.जो जहाँ भाग सकता था,भाग रहा था.अंग्रेजी फौज के जासूस बूढ़े बादशाह को पकड़ने की तरकीबें ढूंढ रहे थे.रुखसाना बादशाह के लश्कर के साथ नहीं जा सकी.

किला उजड़ गया और अंग्रेजों ने किले को अपने कब्जे में ले लिया.बड़ी दाई उसे लेकर अंग्रेजी फौज के जनरल के पास पहुंचकर अपनी विपदा सुनाई.जनरल ने उसे एक रात अपने कैंप में रखा और अगले दिन एक सैनिक अधिकारी के सुपुर्द कर दिया.वहां से भागकर वह उन्नाव पहुंची.एक जमींदार के घर पनाह मिला जहाँ उसकी शादी हुई.आपसी रंजिश में जमींदार मारा गया और वह फिर सड़क पर आ गयी.वहां से भाग कर दिल्ली पहुंची जहां एक कहार के घर रोटी पकाने का काम मिला. कहार के बेटे से एक दिन झगड़ा हुआ और उसने उसे अधमरा कर यमुना के किनारे फेंक दिया.कुछ स्त्रियों ने उसे सरकारी दवाखाना पहुंचाया.फिर भूख और बेकारी से आजिज होकर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर भीख मांगने लगी.

उन दिनों की सबसे दर्दनाक दास्तान गुलबदन की है जो गुलबानो के नाम से भी जानी जाती थी.वह मिर्जा दाराबख्त की बेटी और बादशाह की पोती थी.विद्रोह के नौ महीने बाद,दुखों के पहाड़ से गुजरती हुई,अपनी बीमार मां के साथ दरगाह हजरत चिराग दिल्ली में फटे और बोसीदा कंबल से मुंह ढंके सो रही थी कि एकाएक मां के कराहने पर उठ बैठी तो देखा कि मां बुखार में तप रही थी.शरीर का मांस सूख चुका था.भूख ने कमर तोड़ दी थी.गुलबानो ने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था.

रात के अंतिम पहर में घनघोर बारिश में बिजली चमकने से पास में स्थित संगमरमर की एक कब्र चमक उठती,यह कब्र गुलबानो के पिता की थी.सर्दी बारिश और बुखार के कारण गुलबानो की मां सुबह होते-होते जन्नत सिधार गयी.गुलबानो मां से लिपटकर ऐसा रोई कि फिर कभी नहीं उठ सकी.कहा जाता है कि दोनों मां-बेटी सात दिनों तक दरगाह में पड़ी चील-कौओं का खुराक बनीं.

काश !  अंग्रेज अफसर थोड़ी दरियादिली दिखाते और औरतों,बच्चियों को सम्मानपूर्वक इच्छित जगह पर जाने की इजाज़त देते.

नाम ही तो है

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शेक्सपियर ने जब यह कहा था कि,’नाम में क्या रखा है?’ तो उसके जरूर गहरे अर्थ रहे होंगे.अक्सर लोग यह कहते देखे जाते हैं कि ‘नाम में क्या रखा है?’ उसके गुणों को देखा जाना चाहिए.हकीकत यही है कि आज भी नाम और गुण मेल नहीं खाते.अतीत के चरित्रों के गुण-अवगुण को भी लोग नाम रखते  समय याद करते हैं.दुर्योधन का अर्थ है सबसे बड़ा योद्धा,लेकिन कोई भी माता-पिता अपने पुत्र का नामकरण इस नाम पर नहीं करना चाहते.

भारतीय पुरा साहित्य में ऐसे अनेक चरित्रों का वर्णन मिलता है.इन चरित्रों के माध्यम से जहाँ भारतीय संस्कृति की मूल भावना एवं जीवन मूल्य उजागर हुए हैं,वहीँ उनका आधुनिक चिंतन से मेल भी व्यक्त होता है.ऐसा ही एक अद्भुत चरित्र है – राजा अलर्क का.राजा अलर्क का विवरण मार्कंडेय पुराण में मिलता है.

अलर्क महाराज ऋतुध्वज के पुत्र थे.वस्तुतः ऋतुध्वज के प्रथम पुत्र विक्रांत,दूसरे पुत्र सुबाहु तथा तीसरे पुत्र शत्रुमर्दन हुए.उनकी पत्नी का नाम था मदालसा.जब राजा को चौथा पुत्र हुआ तो राजा ने उनका नामकरण करना चाहा.रानी मदालसा हंस पड़ी,क्योंकि नाम के अर्थों के अनुरूप कुछ भी तो नहीं था,अतः व्यर्थ में अर्थों वाले नाम देने की क्या जरूरत है?

राजा को रानी मदालसा की हंसी अखरी.राजा का यह विश्वास था कि क्षत्रियों के नाम वीरतासूचक होने चाहिए.इसलिए पुत्रों के नाम विक्रांत,सुबाहु और शत्रुमर्दन रखा था.रानी इन तीनों के नामकरण संस्कार पर हंसी थी.अतः राजा ने पुनः कहा कि तुम्हारे विचार में ये नाम उपयुक्त नहीं हैं तो चौथे पुत्र का नाम तुम ही रखो.

रानी मदालसा ने चौथे पुत्र का नाम रखा अलर्क.इस नाम का कोई अर्थ नहीं है.पूछने पर रानी ने कहा कि नाम का प्रयोजन तो व्यवहारिक जीवन में पहचान के लिए होता है.आत्मा तो सर्वव्याप्त है,अतः इस शरीर का कोई नाम हो ही नहीं सकता.जो नाम दिया जाएगा,वह अर्थ की दृष्टि से निरर्थक होगा,अतः अलर्क नाम का कोई अर्थ नहीं है.

रानी मदालसा एक उत्तम मां थी,वह जानती थी कि जीवन में धन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ सार्थक है.अतः तीन पुत्रों का नामकरण संस्कार भले ही राजा ने किया हो,प्रथम गुरु की तरह शिक्षा मां ने ही दी.राजा के पुत्रों को राज धर्म की शिक्षा माता ने नहीं दी.माता मदालसा ने तीनों पुत्रों को ज्ञानोपदेश देकर गृहस्थ धर्म से विरक्त कर दिया.

तब राजा ऋतुध्वज ने रानी से ने कहा कि ‘यदि तुम मेरे वंश का हित चाहती हो तो इस पुत्र अलर्क को राजधर्म की शिक्षा दो ताकि यह क्षत्रियोचित धर्म का पालन कर सके.रानी मदालसा ने पति की आज्ञा का पालन करते हुए संसार के कल्याण के लिए प्रवृत्ति मार्ग और राजधर्म की शिक्षा दी.माता की शिक्षा के अनुसार तीन पुत्र वैराग्य मार्ग पर गए और अलर्क राजमार्ग पर.

राजा अलर्क यथासमय अपने पिता के आदेशानुसार गद्दी पर बैठे,राजा बने और न्यायोचित ढंग से राज्य का संचालन किया.लेकिन उनके बड़े भाई सुबाहु को लगा कि उनका अनुज सांसारिक सुखों में लिप्त हो गया है.अलर्क को आत्मज्ञान कराने के लिए सुबाहु ने काशी नरेश से सहायता मांगी.काशी नरेश को तो इसी दिन का इंतजार था.उन्होंने राजा अलर्क को संदेश भेजा कि या तो राज्य बड़े भाई सुबाहु को सौंप दें या युद्ध के लिए तैयार रहें.अलर्क ने जवाब में कहा कि यदि सुबाहु स्वयं राज्य मांगते हैं तो वे सहर्ष तैयार हैं,किंतु युद्ध के भय से राज्य त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं.

युद्ध में अलर्क की पराजय हुई.उसका सैन्यबल और कोष समाप्त हो गया और उसे वैराग्य हो गया.काशी नरेश ने सुबाहु को राज्य ग्रहण करने को कहा किंतु उसने इंकार करते हुए कहा कि उसका उद्देश्य तो सिर्फ अलर्क को आत्मज्ञान कराना था.अलर्क को सचमुच आत्मज्ञान प्राप्त हो गया.उसने भी राज्य वापस लेने से इंकार कर दिया.अंततः जब कोई राज्य ग्रहण करने को सहमत नहीं हुआ तो अलर्क के बड़े पुत्र को राज्य सौंप दिया गया.

इस प्रकार विश्व का प्रथम दल-बदल हुआ.सत्ता के लिए शत्रु की शरण में जाकर युद्ध लड़ा गया किंतु सत्ता प्राप्ति के लिए कोई उत्सुक नहीं मिला.इस युद्ध और सत्ता संघर्ष का एकमात्र उद्देश्य आत्मज्ञान की प्राप्ति रहा.

अलर्क महान त्यागी,तपस्वी और न्यायी शासक हुए.उन पर उनकी प्रथम गुरुमाता मदालसा का प्रभाव अंत तक रहा.जब तक सत्ता में रहे राज्य के कल्याण में रत रहे और जब राज्य का त्याग किया तो राज्य की और देखा तक नहीं.राजा अलर्क अपने समस्त गुणों के साथ विश्व के प्रथम नेत्रदानी भी कहे जा सकते हैं.उनके सम्बन्ध में वाल्मिकी रामायणमें कहा गया है कि ‘राजा अलर्क ने एक अंधे ब्राह्मण को अपने दोनों नेत्रों का दान कर दिया.’

तेरियां ठंढियां छावां

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एक पंजाबी लोकगीत की कड़ी है जिसमें युवती का सैनिक पति दूर किसी छावनी में है और अपनी प्रियतमा को पत्र नहीं लिखता.वह उसे संबोधित कर कहती है....

पिप्पला ! वे मेरे पेके पिंड दिआ
तेरियां ठंढियां छावां
तेरी ढाव दा मैला पानी
उतों दूर हटावां
लच्छी बनतो सौहरे गइयां
किह्नूं आख सुणावां ?

‘ओ मेरे नैहर के पीपल,कितनी ठंढी है तेरी छाया ? तेरी पुखरी का पानी मैला है,ऊपर से काई हटाऊं.लच्छी और बनतो ससुराल गयीं,किसे अपना हाल सुनाऊं?

लोकगीतों और ग्राम्यगीतों में मानव समाज का वृक्षों के साथ संबंधों का अद्भुत संसार दिखता है.पेड़ – पौधों का मानव जीवन से अटूट संबंध रहा है.सभ्यता के आरंभ से लेकर इसके विकास तक पेड़-पौधे मानव जीवन के सहगामी रहे हैं.सभ्यता का कोई भी चरण ऐसा नहीं रहा जहां पेड़ – पौधों की आवश्यकता महसूस न की गयी हो.

सामाजिक दृष्टि से भी पेड़ – पौधों का मनुष्य के जीवन में प्रमुख स्थान रहा है.भारत में वृक्ष लगाना सदैव से पुण्य का कार्य माना गया है.पवित्र पीपल की छाया में गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई. बौद्धों की असंख्य पीढ़ियां इस पवित्र बोधि वृक्ष की करती आ रही है.

तिब्बत की जनश्रुति के अनुसार जिस समय किसी लामा का जन्म होता है,तब उस जन्मस्थान के आसपास सारे मुरझाए हुए वृक्षों में नया जीवन आ जाता है.उनमें मुस्कुराती हुई कोमल पत्तियां फूटने लगती हैं,जिससे मालूम होता है कि किसी महापुरुष का जन्म हुआ है.

बिहार के धरहरा गांव में पर बेटियों के जन्म पर पांच फलदार वृक्ष लगाने की परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है.भारतीय संस्कृति में शीतल छाया के लिए पीपल और बरगद के वृक्ष लगाना पुण्य का कार्य माना गया है.बरगद अखिल विश्व का प्रतीक है और उसकी छाया में पलभर बैठने का सुयोग ही सुखी जीवन का प्रतिरूप है.कदंब,करील,गूलर,बरगद आदि ब्रज की संस्कृति और प्रकृति के अभिन्न अंग हैं.

धार्मिक कथाओं और लोकगीतों में वृक्षों का उल्लेख होने से वे धर्म का अंग बन गए हैं.कई वृक्ष हिंदु धर्म के आस्था के प्रतीक माने गए हैं.बरगद,पीपल,आंवला जैसे कई वृक्ष उनके सामाजिक,धार्मिक जीवन के अभिन्न अंग हैं तो जनजातीय समुदाय ने भी कुछ वृक्षों को टोटम (गोत्र,वंश प्रतीक) मान कर उनके काटने की मनाही की है.

स्कूल के दिनों में सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता सबको बहुत प्रिय थी .......

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे

भारत की लगभग सभी भाषाओँ में वृक्षों के संबंध में अनेक साहित्यकारों, कथाकारों की कहानी के केंद्रीय पात्र वृक्ष रहे हैं.डॉ. राही मासूम रजा द्वारा लिखित ‘नीम का पेड़’ काफी चर्चित रहा था और पर दूरदर्शन द्वारा एक धारावाहिक का निर्माण भी हुआ था.

एक कहानी में कथाकार कहता है कि उसके आंगन में एक पुराना वृक्ष था जिससे उसके वृद्ध पिता की भावनाएं जुड़ी थी.सुबह-शाम उस वृक्ष की छाया में बैठने से उन्हें असीम आनंद की प्राप्ति होती थी.मकान के विस्तार में वह पेड़ बाधक था.अंततोगत्वा उस पेड़ को काटे जाने का निर्णय हुआ.इधर पेड़ का काटना शुरू हुआ,उधर उनके वृद्ध पिता की तबियत गिरनी शुरू हुई.जिस समय पेड़ धराशायी हुआ उनके पिता निष्प्राण हो चुके थे.

अनेक लोकगीत ऐसे मिलते हैं जिनमें वृक्ष मनुष्य की भावनाओं के आलंबन मात्र हैं.वे मनुष्य के सुख या दुःख  के प्रतीक बन जाते हैं.कभी – कभी वे सजीव मान लिए जाते हैं. उत्तर प्रदेश के एक मधुर लोकगीत की कड़ी है.......

बाबा निबिया के पेड़ जिनि काटेउ
निबिया चिरइया के बसेर, बलइया लेउ बीरन की
बाबा सगरी चिरइया उड़ी जैइहैं
रहि जयिहैं निबिया अकेल, बलइया लेउ बीरन की
बाबा बिटिया के दुख जिन देहु
बिटिया चिरईया की नायि, बलइया लेहु बीरन की
बाबा सबरी बिटीवा जैहें सासुर
रह जाई माई अकेल, बलइया लेहु बीरन की

(हे बाबा ! यह नीम का पेड़ मत काटना. इस पर चिड़िया बसेरा करती हैं. बीरन ! मैं बालाएं लेती हूं. हे बाबा ! बेटियों को कभी कोई कष्ट नहीं देना. बेटी और चिड़िया एक जैसी हैं. बीरन ! मैं बलाएं लेती हूं.सब चिड़िया उड़ जाएंगी ! नीम अकेली रह जाएगी. बीरन ! मैं बलाएं लेती हूं. सब बेटियां अपनी-अपनी ससुराल चली जाएंगी. मां अकेली रह जाएगी. बीरन ! मैं बलाएं लेती हूं.)

बिहारके भोजपुरी के लोकगीतों में भी वृक्षों का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है.भोजपुरी विवाह गीत के इस बोल में गंगा-यमुना के किनारे उगे हुए पीपल को कितना महत्त्व दिया गया है.कोई कन्या अपने भावी पति की कल्पना करते हुए कहती है ......

तर बहे गंगा से यमुना ऊपर मधु पीपरि हो ...

एक उड़िया लोकगीत में ससुराल से लौट कर आती हुई युवती पीहर की अमराई का चित्र अंकित करते हुए कहती है.......

कुआंक मेलन आम्ब
तोटा रे बोउ लो
झियंक मेलन बोप
कोठा रे बोउ लो

(कागों का मिलन-स्थल है अमराई,ओरी मां ! कन्याओं का मिलन स्थल है बाबुल का घर, ओ री मां !)

हिंदी फिल्मों के गीतों में भी गीतकारों ने हमारे जीवन में पेड़-पौधों के महत्त्व को दर्शाते हुए कई गीत लिखे हैं.

बढ़ता शहरीकरण और औद्योगिक विस्तार के कारण वृक्षों के अस्तित्व पर भले ही खतरा मंडरा रहा हो लेकिन हमारी पीढ़ियों ने मानव समाज के साथ वृक्षों के अटूट संबंधों को लोकश्रुतियों, जनश्रुतियों,लोकगीतों के रूप में जिंदा रखा है.

पड़ोस में बज रहे रेडियो से धीमी-धीमी आती जसपिंदर नरूला की खनकती आवाज आप भी सुन पा रहे हैं न.........

पीपल के पतवा पे लिख दी दिल के बात 

सूर्यपुत्र और ग्रीक कथाएं

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ग्रीक कथाओं में फेथन
कई भारतीय पौराणिक कथाओं एवं ग्रीक कथाओं में काफी समानता है,लेकिन यह समानता कथाओं के प्रारंभ में ही है,इनका अंत बिल्कुल भिन्न है.

सूर्यपुत्र कर्ण महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक है.उसके बिना महाभारत की कथा पूरी नहीं होती.सूर्य जैसे तेजस्वी पिता के पुत्र होते हुए भी उसे आजीवन नाजायज संतान होने का अभिशाप भोगना पड़ा.कर्ण के समान ग्रीक कथाओं में सूर्य का पुत्र फेथन है.उसे मां का प्यार तो मिलता है और पिता का सानिंध्य भी, लेकिन उसका अंत अत्यंत दुखद होता है. ग्रीक पौराणिक कथाओं में सूर्य देवता का नाम हीलियस है.उसका जगमगाता हुआ भव्य महल सुदूर पूर्व में कोचलिस के पास स्थित है.

भोर होते ही उसका प्रिय पक्षी मुर्गा जोर से बांग देकर अपने स्वामी के आगमन की सूचना देने लगता है.उसकी बहन उषा की देवी सुंदरी इऑस अपनी गुलाबी अँगुलियों से पूर्व के विशाल द्वार खोल देती है और अपने चार घोड़ों के रथ पर आसीन हीलियस दिवस-यात्रा पर निकल पड़ता है.हीलियस का व्यक्तित्व प्रभावपूर्ण है.कहीं-कहीं उसके शरीर में पंख भी दर्शाये गए हैं जो उसकी तीव्र गति के प्रतीक हैं.उसकी पत्नी का नाम पर्सी है.

हीलियस की एक प्रेमिका है क्लामिनी.वह उसके संसर्ग से एक पुत्र को जन्म देती है जिसका नाम है फेथन.क्लामिनी अपने पुत्र फेथान को पालती-पोसती और बड़ा करती है.जब फेथन कुछ बड़ा होता है तो क्लामिनी उसे प्रतिदिन उगते सूरज की ओर संकेत करके उसके दिव्य पिता के अद्भुत सौंदर्य और तेज के बारे में बताया करती है.

फेथन सूर्य देवता के पुत्र होने के बारे में जानकर गर्व से भर उठता है और अक्सर अपने दोस्तों को बताया करता है.दोस्त उससे इस बात का प्रमाण देने को कहते हैं.वह तत्काल अपनी मां के पास पहुँचता है और सूर्य देवता के पुत्र होने का प्रमाण मांगता है.क्लामिनी आकाश में यात्रा कर रहे सूर्य की और हाथ उठाकर कहती है कि ‘स्वयं सूर्य देवता साक्षी हैं कि मैंने तुसे असत्य नहीं कहा. आकाश में चमकता सूर्य और पृथ्वी पर फैला उसका प्रकाश जितना सत्य है,उतना ही सत्य यह है कि तुम सूर्य देव के पुत्र हो.यदि तुम इस बात से संतुष्ट नहीं तो स्वयं अपने पिता सूर्य देव से पूछ लो.’

सोच-विचार कर वह सूर्य के महल की और चल पड़ा.अद्भुत था सूर्य का महल.स्वर्ण की दीवारें,हाथी दांत की तरह,उनमें जड़ित हीरे-जवाहरात.ऐसा लगता मानो महल प्रकाश के टुकड़ों से बना हो.वहां हर समय दिन का उजाला फैला रहता.रात और अंधेरे का कहीं नाम न था.स्वर्ण के सिंहासन पर सूर्य देवता हीलियस विराजमान थे.

हीलियस ने फेथन को देखते ही पहचान लिया कि वह उसका पुत्र है.सूर्य ने अपने सिर से किरणों का ताज उतारकर एक ओर रखते हुए उसके आने का कारण पूछा.सूर्य के मुस्कुराते चेहरे को देखकर आश्वस्त हुए फेथन से आने का कारण पूछा.उसके आने का प्रयोजन जानते हुए सूर्य देव ने कहा कि क्लामिनी ने उसे सत्य बताया है.आज जो चाहो मांग लो.

फेथन ने न जाने कितनी बार सूर्य के रथ को आकाश में यात्रा करते देखा था.वह एकदम से बोल उठा,बस एक दिन के लिए मुझे अपना रथ दे दें.हीलियस का को पल भर में ही एहसास हो गया कि वचन देकर उन्होंने कितनी गलती की है.अपने सुनहले बालों वाले सिर को इनकार में हिलाते हुए उन्होंने कुछ और मांगने को कहा लेकिन फेथन अपने हठ पर कायम था.यौवन की उदंडता उसकी रगों में दौड़ रही थी.एक-एक कर तारे बुझ चले थे.उषा ने भी द्वार खोल दिए थे और गुलाब के फूलों से भरा मार्ग उसके आंचल सा महक उठा था.

हताश हो हीलियस फेथान को रथ के पास ले गया.उसके सिंहासन पर हीरे जड़े थे जो सूर्य के प्रकाश में और भी चमक उठते.एम्ब्रोशिया का भोजन लिए हुए स्वस्थ,सुदृढ़ घोड़े रथ में जुटे थे.हीलियस ने एक द्रव फेथान के मुख पर मल दिया ताकि वह झुलसा देने वाली लपटों की गर्मी सह सके.गर्व से भरा हुआ फेथन तुरंत रथ पर चढ़ गया.हीलियस ने लगाम उसके हाथ में थमा दी.

गर्वोन्मत्त फेथन का रथ पूर्व के द्वार से निकला.घोड़े इतने तेज दौड़ने लगे कि हवाएं भी पीछे छूटने लगीं.सामने आकाश का विस्तृत क्षेत्र था और नीचे पृथ्वी.पल भर में ही उसका सीना गर्व से भर उठा.लेकिन शीघ्र ही स्थिति बदल गयी.रथ तेजी से इधर-उधर झटका खाने लगा.फेथन घोड़ों पर से नियंत्रण खो बैठा.घोड़े समझ गए थे कि उसका लगाम कमजोर हाथों में है.वे अपनी इच्छानुसार इधर-उधर दौड़ने लगे.

फेथन भय से मूर्छित हो गया और लगाम उसके हाथ से छूट गयी.घोड़े सरपट दौड़े जा रहे थे,फेथन के प्राण गले में अटके हुए थे.बादलों से धुंआ उठने लगा था.रथ अपना निश्चित मार्ग छोड़कर काफी नीचे आ गया.सूर्य की गर्मी से पहाड़ों में आग लग गयी.सबसे पहले इसका शिकार हुआ सबसे ऊँचा पर्वत इडा,जो अपने झरनों के लिए प्रसिद्ध था,म्यूजेज का निवास स्थान हेलिकन और परनासस.
सूर्य रथ निरंतर एक पुच्छल तारे की तरह पृथ्वी की ओर गिरता चला आ रहा था.बड़े-बड़े नगर,उंची विशाल इमरतें जलकर खंडहरों में बदल गयीं.फसलें जलकर राख हो गयीं.जंगलों में आग लग गयी और उबकी लपटें आकाश तक पहुँचने लगीं.हरे-भरे घास के मैदान राख और रेत के ढेर बन गये.लिबयान का सुंदर प्रदेश रेगिस्तान बन गया.

कहते हैं इसी कारण विश्व के एक भाग के लोग बिलकुल काले पड़ गए,जिन्हें नीग्रो कहा जाता है.धरती में दरारें पड़ गयीं.झरनों का पानी खौलने लगा.नदियां सूख गयीं.समुद्र के देवता पसायदान ने तीन बार जल की सतह से अपना सर उठाकर देखने की कोशिश की,लेकिन सूर्य के तेज को सहने में असमर्थ हो गया.यह अग्नि प्रलय था.दग्ध होकर पृथ्वी ने रक्षा के लिए ज्यूस को पुकारा.

देव सम्राट ज्यूस ओलिम्पिस स्थित अपने महल में सो रहा था.पृथ्वी की चीत्कार से उसकी नींद खुली तो नीचे देख कर अचंभित रह गया.सभी देवता तत्काल एकत्रित हुए.पृथ्वी की रक्षा के लिए न तो पानी का सोता बचा था और न कोई बादल का टुकड़ा.

पृथ्वी को बचाने का जब कोई उपाय नहीं बचा तो ज्यूस ने अपना वज्र उठाया और फेथान को लक्ष्य कर फेक दिया.वज्र प्रहार से पल भर में सूर्य का रथ और फेथन का शरीर क्षत-विक्षत हो एरिडोनस नदी में जा गिरा. फेथन की बहनें करुण विलाप करने लगी.कई दिनों तक वे उसी नदी के किनारे बाल बिखेरे रोती रहीं.

अंतत देवताओं को उन पर दया आ गयी और उन्हें वृक्षों में परिवर्तित कर दिया.फेथन के मित्र सिगनस ने नदी में डुबकियां लगाकर फेथन के शरीर के कुछ अंग निकाले और विधिपूर्वक उसका अंतिम संस्कार किया.लेकिन उसके बाद भी वह शेष अंगों की खोज में पागलों की तरह नदी में तैरता और डुबकियां लगता रहता था,अतः देवताओं ने उसे हंस बना दिया.हंस बना सिगनस आज तक हीलियास के दुस्साहसी पुत्र फेथन के अंगों को ढूंढ़ रहा है.

प्रकृति से साहचर्य का पर्व : करमा

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प्रकृति के परम – तत्व से साहचर्य का महापर्व है - करमा.भाद्र पद एकादशी को जनजातीय समाज इसे काफी उत्साह से मनाता है.इन दिनों धान की बालियों से भीनी-भीनी गंध पसरने लगती है और हरियाली दूर-दूर तक छा जाती है.ऐसे मौसम में मनाये जाने वाला करमा ही एक ऐसा महापर्व है जिसे जनजातीय समाज के अलावा अब अन्य समुदाय भी समान रूप से मनाते हैं.

गैर जनजातीय महिलाएं और कन्याएं अपने भाई की सलामती के लिए व्रत रखकर इसे मनाती हैं जबकि जनजातीय समुदाय भाग्यवर्द्धन और परस्पर बंधुत्व में वृद्धि के लिए.कर्मा की पृष्ठभूमि में जनजातीय सांस्कृतिक चेतना,जीवन-दर्शन,लोक-विश्वास,धर्म और प्रकृति के प्रति आदिम संवेदनाएं हैं.निराकार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मानव का श्रद्धा –नैवेद्ध  अर्पण करना मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का प्रतीक है.

करमा का अर्थ है – ‘हाथमा’ अर्थात भाग्य में.इस पर्व में करम वृक्ष की डाली गाड़ कर उसकी पूजा की जाती है.आदिवासी समाज में उनके पुरोहित – पाहन करम डाली की पूजा संपन्न कराते हैं तो गैर आदिवासी समाज में पुरोहित यह पूजा कराते हैं.करमा पर्व के दिन भर स्त्री-पुरुष उपवास रखते हैं और रात्रि में पूजा करते हैं.यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है.धूप-दीप,नैवेद्ध,फूल-अक्षत,सिन्दूर,खीरा,भुने हुए चने का प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है.

आदिवासी युवक वन से करम वृक्ष की डाली लाने के लिए समूह बनाकर निकलते हैं.कुंआरी कन्याएं उन्हें विदाई देती हैं.करम की डाली लाने के लिए युवा आदिवासी मांदर और नगाड़ा बजाते हुए जंगल की ओर जाते हैं.युवतियां उनके साथ नाचती-गाती जाती हैं.करम के वृक्ष के पास पहुंचकर वे उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ समय तक उसकी परिक्रमा करते हुए नृत्य करते हैं.

जो युवक-युवतियां पहली बार उपवास कर रहे होते हैं,वे करम वृक्ष के चारों ओर धागे बांधते हैं.फिर उस पर हल्दी पानी छिड़कते हैं.इसके बाद कोई युवक वृक्ष पर चढ़ कर उसकी तीन डालियां काटता है.इन कटी हुई डालियों को जमीन पर नहीं गिरने दिया जाता.सम्मानपूर्वक इन डालियों को युवक साथ आयी युवतियों को सौंप देते हैं.वे करम की डालियां कंधे पर ढो कर लाती हैं.

सभी युवक युवतियां नृत्य-गीत के बीच थिरकते हुए गांव वापस आते हैं.पह्नाइन गांव के अखाड़े के पास उनका स्वागत करती हैं.उनके साथ पाहन और महतो भी होते हैं.युवतियां डालियों को पह्नाइन को थमा देती हैं.करम की डालियों को धोने के पश्चात अखाड़े के बीच उन्हें रोप देती हैं.उस पर तेल सिंदूर का लेप किया जाता है.उसके निकट एक दीप जलाया जाता है.फिर सारी रात और दूसरे दिन करमदेव की विदाई तक गीतों की अनवरत धारा बहती रहती है.मांदर,बांसुरी,ठेचका,नगाड़ा वाद्य यंत्रों के ताल-लय पर झूमर नृत्य करते हुए उपवास रखने वाले युवक-युवतियों के पाँव थकते नहीं.
करमा गीत प्रायः पांच तरह के होते हैं – सुमिरनी,संक्षईया,अधरतिया,मिनसहर,ठड़िया.           

सुमिरनी किसी शुभकार्य से पूर्व ईश्वर वंदना के गीत होते हैं.इनमें राम,कृष्ण और परम सत्ता के प्रति श्रद्धा निवेदित की जाती है.इसी तरह का एक गीत है.........

हाय रे ओकोतिया
रुतई औरोड,तानी रे छैला
हाय रे ओकोतिया
निंदा सिंगी आ- ए-
नलिन मेंदा जो रो बान रे छैला
हाय रे ओकोतिया
चंदन कस्तूरी या सोबेनगोसो जना
हाय रे ओकोतिया

(हाय !  बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ? हाय-हाय,कहां चला गया ? रात-दिन उसके लिए आँखों से आंसू बरसते रहते हैं.हाय,वह छोकरा कहां चला गया ? चंदन-कस्तूरी एवं फूल मुरझा गये.   हाय ! वह बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ?)

संक्षईया में स्थानीय जनजीवन और जनजातीय समाज की व्यथा का शाब्दिक चित्रण होता है.मध्य रात्रि के प्रथम पहर में गाया जाता है – अधरतिया या रिझवारी,जो श्रृंगारसिक्त भावना पर आधारित होता है.इसमें दिन-रात को संयोग-वियोग के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है.
रात्रि का अंत होता है.पूर्व में सूर्य उदय होने लगता है.मन में उमंगें जागने लगती हैं.तो स्वतः ही कंठ में सुर जगने लगते हैं.इस समय गाया जाता है मिनसहर गीत,जिनमें संघर्षशील जीवन में क्षण भर के लिए,घने घुमड़े बादलों के बीच छिपे सूर्य को निहारने का सुख मिलता है.......

कनेत उंचे कारी बदरिया रे
कने तरिसे जल मेघे
सरगे त उंधे ये कारी बदरिया
अघरे बरीसे जल मेघे....

ठड़िया करम गीतों में जनजातीय जीवन-दर्शन का भावात्मक  स्पर्श होता है.क्षणभंगुर  जीव-जगत में ऐंद्रिय सुख मात्र क्षणिक है और निरंतर क्षय होता हुआ मनुष्य कब तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहेगा ? इस लिए भोग-विलास में न पड़कर जीवन को सुधारें,धरती को संवारें.

झूमर नृत्य और करमा गीत के बाद युवतियां करम डालियों के साथ जल रहे दीपक के पास आकर बैठ जाती हैं.उनकी टोकरियों में फूल और कपड़ों में लिपटा एक खीरा रखा होता है,जो उनकी भावी संतान का प्रतीक होता है.करम पूजा के पश्चात पाहन करमा-धरमा की कथा सुनाता है.करमा कथा विभिन्न रूपकों में,भिन्न-भिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न कथानकों में कही जाती है.मुंडारी,संथाली,गोंड आदि जनजातीय समाजों में करमा-कथा कई कारणों से भिन्न है क्योंकि काल और परंपरा इनके समाजों में भिन्न है. लेकिन सभी करमा कथाओं का सार एक सा ही है.

राजा द्वारा करम की उपेक्षा और परिणामस्वरूप उस पर विपत्तियों का आगमन.मुंडारी करमा-कथा में सृष्टि का उद्भव और आदिमानव के जन्म का भी वर्णन है.सामाजिक विकास और मानवीय-मूल्यों का क्रमिक विकास भी इस कथा में प्रतीक रूप से वर्णित है.कथा श्रवण के बीच-बीच में करम की कृपा के लिए करम डाली पर पुष्पों की वर्षा की जाती है.कथा समाप्ति पर लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं.

रात्रि में फिर पूजा-स्थल पर एकत्र होते हैं.रातभर,भोर की लाली फूटने तक,करम के आदर में नृत्य-गीत चलता रहता है.नृत्य अबाध होता है,इसलिए इसकी तेज और मंद लय में रहती है.मांदर पर एक विशेष ताल ही बज सकता है.इस आयोजन में ढोल-वादन वर्जित है.दिन चढ़ते ही पह्नाइन करम की डालियां   उखड़वाकर युवतियों को सौंप देती हैं.वे इसे अपने कंधों पर उठा लेती हैं.झूमते-थिरकते नदी या जलाशय में उसे विसर्जन कर वे करम राजा या वनदेव से भाई और परिवार के लिए सौभाग्य की याचना करती हैं.

आज के बाजारवाद और उपभोक्तावाद के इस युग में जहां पर्व-त्यौहार ग्लैमर से युक्त होने लगे हैं वहीँ प्रकृति से साहचर्य का यह पर्व मनुष्य को अपने जड़ों की ओर संकेत करने और प्रकृति के साथ संबंधों को भी दर्शाता है.

तलाश आम आदमी की

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आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी 
दुष्यंत कुमार ने खूब ही कहा है कि.....

इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए 
मैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिन्दुस्तान हूं 

चुनावी माहौल में इस देश के प्रत्येक नेता की बस एक ही चिंता है,पीड़ा है,दुःख है कि किस तरह आम आदमी का भला हो,वह ऊपर उठे,तरक्की करे.

यह बीमारी छुआछूत की तरह अपने देश में आजादी के बाद बहुत तेजी से फैली है,किसी खतरनाक वायरस की तरह.प्रधानमंत्री से लेकर गली-मुहल्ले तक के नेता के किसी अवसर पर दिए गए भाषण का एक ही निचोड़ निकलता है कि आम आदमी के लिए बहुत कुछ करना है.

लेकिन सवाल यह उठता है कि आम आदमी होता कैसा है,कहाँ पाया जाता है?आम आदमी भी कुछ कम नहीं,किसी को नजर ही नहीं आता.अगर कभी हमें दिख भी जाए तो पूछना लाजिमी है कि वह कहां छुपा था.यह आर. के. लक्ष्मण के कार्टून का आम आदमी तो नहीं जो सीधे अखबार के पहले पन्ने पर दिख जाए.

चुनाव प्रचार के शोर में सारा जोर आम आदमी पर ही होता है.किसी नेता का भाषण सुनने वाले भी यही सोचते हैं कि वह कोई बेवकूफ किस्म का,दबा,कुचला आदमी होगा जिस पर बहुत जुल्म हो रहे हैं.नेता भी पूरा घाघ होता है,वह जानता है कि सामने जो उधार लाए गए श्रोता बैठे हैं,उन्हीं में से ज्यादातर आम लोग हैं.लेकिन उसे क्या फर्क पड़ता है?उसे तो बस उससे एक ही चीज लेनी है,उसका वोट.

कार्यकर्त्ता की मीटिंग में भी उसे बस एक ही बात की चिंता है कि अगर आम आदमी का वोट उसे मिल जाए तो वह वैतरणी पार कर जाए.बापू का अब ज़माना तो रहा नहीं कि कार्यकर्त्ताओं का उनसे जीवंत संपर्क हो.उन्हें तो बस नेता.मंत्री,कुरसी,सिफारिश,कमीशन,बूथ कैप्चरिंग आदि चीजें ही मालूम हैं,सो उन्होंने सोचा होगा कि आम आदमी जरूर कोई ख़ास आदमी होगा जो गायब हो गया है.

अब आम आदमी का कोई ख़ास हुलिया तो है कि अखबार में उसकी तलाश करने के लिए विज्ञापन दिया जाए.उसकी उम्र आजादी के बाद से स्थिर है,लंबाई समय के हिसाब से बढ़ती घटती रहती है.नजर देखने में ठीकठाक है परंतु दूरदृष्टि ठीक नहीं है,इसलिए कभी-कभार निकम्मा आदमी भी चुन लेता है.वैसे समझदार है परंतु खुद का भला बुरा नहीं समझता है,भोला और मासूम है,इसलिए वह आम आदमी है.

सो हमने भी एक दिन उस आम आदमी की तलाश शुरू कर दी.हर आते जाते को घूर-घूर कर देखने लगे.उसके लिए हर कहीं भटके.सरकारी बसों में लटके,सिनेमा की टिकट के लिए लाइन से लेकर,राशन की दुकान तक भटके.हर आदमी हमें आम आदमी जैसा कुछ-कुछ लगा,लेकिन पूरे यकीन से नहीं कह सके कि वही आम आदमी है.

एक आदमी सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाते हुए मिला.हमने उससे बड़े विनयपूर्वक पूछा ‘भाई साहब आप कौन हैं?’ उसने घूरकर और सिगरेट का धुंआ हमारे चेहरे पर उड़ाते हुए कहा,पूछने का नक्को,अपुन भोली दादा का आदमी है,क्या?

लब्बो-लुआब यह कि हर कोई किसी न किसी का आदमी निकला.बस वो आम आदमी नहीं था.आखिरकार रहा नहीं गया और एक अखबार के पत्रकार से पूछा कि आम आदमी कहां पाया जाता है.पत्रकार यह सुनकर हंसने लगा,’आप इतना भी नहीं जानते.आम आदमी को नहीं पहचानते,फिर धीरे से बोला,अरे भाई आम आदमी अब ख़ास हो गया है.आजकल वह नेता हो गया है.’

हमने पूछा ‘वह जो टेलीविजन पर आता है,संसद में बोलता है,अखबारों में छपता है.चुनाव का मौसम हो तो वह बहुतायत से पाया जाता है और उसे हर कोई देख सकता है.मैंने पूछा,;ऐसा होता क्यूं है?’ वह बोला क्योंकि हर आम आदमी ख़ास होना चाहता है,जब ख़ास नहीं हो पाता तो उसका मुखौटा लगा लेता है.

और आम आदमी के नाम पर जो चिंता करते हैं,वे ख़ास आदमी होते हैं.परंतु उसके अंदर भी एक आम आदमी होता है जिससे वे हमेशा डरते हैं,क्योंकि जो आज ख़ास बने बैठे हैं,वे भी तो कल आम थे.उसकी बातों को तवज्जो देते हुए और चिंतन-मनन करते हुए घर की ओर चला तो बेख्याली में एक आदमी से टकरा गया.उसका चेहरा और चाल-ढाल देखकर कीच शक हुआ तो उससे पूछा,भाई साहब आप कौन से आदमी हैं?’

उसने झटके से जवाब दिया ‘आप हमको नहीं पहचानते? अरे भई हम आम आदमी हूँ.’इसके बाद उसने देश-विदेश की तमाम समस्याओं पर एक लंबा भाषण पिलाया और सतर्क रहने की हिदायत देकर चला गया.मेरी समझ में आ गया कि यही आम आदमी है जो आज नहीं तो कल ख़ास आदमी बन जाएगा और आम आदमी के बारे में लंबे-लंबे भाषण देगा और उसके बारे में चिंता करेगा.और बेचारा आम आदमी जहाँ है,जैसा है वही रहेगा और उसे कोई ढूंढ नहीं पाएगा.

देवी पूजा की शुरुआत

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सभी संस्कृतियों में मातृदेवी की पूजा किसी न किसी रूप में अवश्य ही मिलती है लेकिन भारतीय देवी-पूजा की विशेषता उसे विशिष्ट बनाती है.इसका कारण है उसकी अतीत से आधुनिक काल तक चली आ रही निर्बाध परंपरा और उसका निरंतर विकासशील स्वरूप.

हालांकि आधुनिक विचारकों ने प्राचीन युग में मातृदेवी की लोकप्रियता का कारण तत्कालीन मातृप्रधान, सामाजिक,आर्थिक व्यवस्था को माना है जिसमें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था.जबकि,इसका कारण स्त्री की सृजनात्मक शक्ति में भी निहित हो सकता है,जिसने आदिम मानवों के ह्रदय में भय और आश्चर्य उत्पन्न किया होगा.

देवी-पूजा का आरंभ प्रायः सिन्धु घाटी सभ्यता से माना जाता है जिसके उपलब्ध अवशेषों में विभिन्न अलंकरणों से सुसज्जित स्त्री मूर्तियाँ मिली हैं जो विद्वानों के अनुसार महामातृदेवी या मातृरूप में स्थित प्रकृति की मूर्तियां हैं.यह मत भारत की धार्मिक अनुश्रुति के अनुकूल भी है क्योंकि यहाँ अनादिकाल से मातृदेवी,आद्याशक्ति या प्रकृति की पूजा प्रचलित रही है.जिसे वेदों में पृथ्वी भी कहा गया है,यही ऋग्वेद के आदित्यों की माता अदिति भी है.

वैदिक सभ्यता के पितृप्रधान होने के कारण उसमें देवों की अपेक्षा देवियों को अत्यंत गौण स्थान मिला.फिर भी ऋग्वेद के महत्वपूर्ण देवियों में अदिति,उषा,पृथ्वी,सरस्वती,वाच,रात्रि,इला,भारती आदि महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कालांतर में स्वतंत्र अस्तित्व के कारण उनकी लोकप्रियता भी बढ़ी.उनकी कल्पना ने पौराणिक युग के सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में कल्पित देवी के स्वरूप के विकास में योग दिया.ऋग्वेद के देवीसूक्त में वर्णित वाच की कल्पना विशेष है जिसमें सर्प्रथम एक सार्वभौम स्त्री शक्ति की कल्पना की गई है.

अंबिका,दुर्गा,उमा,काली आदि बहुपरिचित नाम,जो देवी के विभिन्न रूप थे,उत्तर वैदिक कालीन साहित्य में प्राप्त होने लगते हैं.ऋग्वेद के खिल मंत्रों में अग्नि के साथ दुर्गा का जो वर्णन है वह काफी बाद का है.नारायणीयोपनिषद ईसापूर्व चौथी-तीसरी शती के पूर्व का नहीं माना जाता फिर भी इसमें अंबिका को दुर्गा,कन्याकुमारी,वैरोचनी और कात्यायनी नामों से विभूषित किया गया है.

भद्रकाली,भवानी,दुर्गा आदि विविध नाम शांखायन और हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र में भी प्राप्त होते हैं.बोधायन गृह्यसूत्र में दुर्गा देवी के भी पूजन की चर्चा है,वहां उन्हें आर्या,भगवती,महाकाली, महायोगिनी, शंखधारिणी तक नाम दिए गए हैं.इससे यह पता चलता है उत्तर वैदिक कालीन साहित्य में उन अंकुरों में का धीरे-धीरे विकास होने लगा था जो बाद में देवी-पूजा के रूप में विकसित हुए.

महाकाव्यों का युग आते-आते देवी पूजा का स्पष्ट विकास हो चुका था.यद्यपि रामायण में देवी के स्वरूप,उसकी पूजा पर कम प्रकाश डाला गया है फिर भी देवी से संबंधित कुछ पौराणिक कथानकों जैसे-हिमवंत द्वारा पुत्री उमा को विवाह में रूद्र को समर्पित करना दक्ष,यज्ञ,गंगावतरण आदि का समावेश है.

महाभारत में इन कथाओं का और भी विकसित स्वरूप मिलता है.महाभारत के भीष्मपर्व के तेईसवें अध्याय में युद्ध में विजयश्री प्राप्त करने के लिए कृष्ण की सम्मति से अर्जुन को दुर्गा की स्तुति करते दिखाया गया है.वहां दुर्गा को काली,कुमारी,कपालिनी,महाकाली,चंडी,कराला,उमा जैसे नामों से विभूषित किया गया है.

इसी प्रकार विराटपर्व के छठे अध्याय में युधिष्ठिर द्वारा भी दुर्गास्तुति की गयी है किंतु वहां उनकी स्तुति महिषासुरमर्दिनी के रूप में हुई है जो विंध्य पर्वत में निवास करती है तथा मदिरा,मांस,पशुबलि से प्रसन्न होती है.कृष्ण की भांति वे भी नील वर्ण की हैं और मयूर की कलंगी धारण करती हैं.


हरिवंश के दो अध्यायों एवं मार्कंडेय पुराण के एक अंश को देवी माहात्म्य कहते हैं.देवी माहात्म्य का रचना काल लगभग छठी शती माना जाता है.हरिवंश के अध्यायों में दुर्गा संप्रदाय(शाक्त संप्रदाय) के धार्मिक दर्शन का वर्णन मिलता है.उसके अनुसार देवी के उपासकों का एक संप्रदाय जिनके अनुसार देवी ही उपनिषदों की ब्रह्म है.यहाँ देवी को शक्ति के रूप में सर्वप्रथम परिकल्पित किया गया है.

शक्ति वस्तुतः उमा और पार्वती का ही  विकसित तांत्रिक दार्शनिक रूप है जिसकी कालांतर में विशेष महिमा बढ़ी.उमा के रूप में वे कुमारी कन्या हैं,शिव से विवाह के बाद माता-रूपिणी पार्वती हैं और जब वे धीरे-धीरे कपालभरणा काली या सिंहवाहिनी दुर्गा बन महाकाल की शक्ति बनी तब उनका तेज स्वतंत्र हो उठा और विष्णु एवं शिव को छोड़कर देव-देवी वर्ग में किसी को इतनी महिमा नहीं बढ़ी जितनी इस शक्ति या देवी दुर्गा की.

पुराणों में असुर संहार की कथाओं का समावेश होने लगा,तो देवी का माहात्म्य तेजी से बढ़ा और उसने स्वयं को शिव जैसे समर्थ और शक्तिमान स्वामी से स्वतंत्र कर लिया.ब्रह्मा,शुक्र,नारायण आदि द्वारा की गयी देवी स्तुतियां और शुम्भ-निशुंभ,तक्त्बीज,महिषासुर जैसे दैत्यों का संहार करने के कारण देवी की शक्ति और महिमा अनंत हो गयी और तेज में ब्रह्मा,विष्णु,शिव आदि देवों से अद्भुत कहा गया.उन्हें चंडी और अंबिका कहकर उनकी प्रशंसा में चंडीशतक और चंडीस्त्रोत रचे जाने लगे.

ऐसा प्रतीत होता है की मध्यकाल से बहुत पहले ही भारत के बंगाल और आसाम प्रांतों में शाक्त संप्रदाय फ़ैल चुका था.विभिन्न नामों जैसे-त्रिपुरा,लोहिता,कामेश्वरी,भैरवी वाली शक्ति विश्व की आदि तत्व के रूप में धारित हुई और देवी के रूप में पूजित होने लगीं.’देवी माहात्म्य’ शाक्तों के प्रमुख ग्रंथों में से एक है,जिसके अनुसार देव या इष्ट एक है और वह मां एवं संहार करने वाली शक्ति के रूप में.

इस संप्रदाय में देवी की कल्पना में अन्य मान्यताओं का समावेश हो गया और अमृत के अक्षय समुद्र में मनोहारी वृक्षों से आच्छादित,मणि-मुक्ता निर्मित प्रासादों में उनका निवास माना गया अवं विभिन देवी देवताओं को उनका सेवक बताया गया.हालांकि शाक्त संप्रदाय की मान्यताओं का आधार भी एक प्रकार का अद्वैत दर्शन था जिसमें शिव की परम सत्ता के रूप में कल्पना थी और सम्पूर्ण जगत को इन्हीं अभिन्न तत्वों मूलतः शिव और शक्ति का परस्पर संयोग माना गया.

कल्पना से उभरती एक विद्या

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सदियों से कीमियागिरी एवं कीमियागर के संबंध में एक रहस्यमय धुंध लिपटा रहा है.चर्चित लेखकों और उपन्यासकारों ने अपने कथानक में इसे जगह देकर इसे और जीवंत कर दिया है.पाओलो कोएलो की प्रमुख पुस्तक का शीर्षक ही ‘कीमियागर’ (The Alchemist) था.इस पुस्तक के आखिर में एक कीमियागर का वर्णन मिलता है जो धातुओं को रासायनिक मिश्रण में मिलाकर सोना बनाता है? लेकिन क्या हकीकत में पहले कभी कीमियागर होते थे या ये सिर्फ काल्पनिक चरित्र ही हैं.

प्राचीन हिंदू ग्रंथों में कीमियागिरी के संबंध में कुछ नुस्खों का वर्णन मिलता है लेकिन इसका अर्थ निकालना आसान नहीं है....

तोरस,मोरस,गंधक,पारा
इन्हिं मार इक नाग संवारा
नाग मार नागिन को देय
सारा जग कंचन कंचन कर लेय


फ़्रांस के दो कीमियागर बहुत प्रसिद्ध रहे हैं – निकोलस फ्लामेल और जकेयर. फ्लामेल का जिक्र जे.के. रॉलिंगकी हैरी पॉटर सीरिज की पहली किताब हैरी पॉटर और पारस पत्थर (Harry Potter and the Philosopher’s Stone)में निकोलस फ्लामेल नामक रसायनशास्त्री के रूप में हुआ है जिन्होंने पारस पत्थर बनाया था और जिसके स्पर्श से धातु सोने में परिवर्तित हो जाता था.इसके अलावा प्रसिद्ध उपन्यासकार डैन ब्राउनकी बहुचर्चित पुस्तक द दाविंची कोड (The Davinchi Code)में भी फ्लामेल का जिक्र मिलता है.

फ्लामेल के संबंध में यह कहा जाता है कि वह पुरानी पुस्तकों को खरीदता और बेचता था.एक रात स्वप्न में उसे एक परी ने एक पुस्तक दिखलायी और कहा ‘फ्लामेल ! देखो, इस पुस्तक को. न तुम इसे समझ पाओगे और न कोई दूसरा ही,पर एक दिन ऐसा आएगा,जब तुम इसमें एक ऐसी चीज देखोगे,जो किसी और को नसीब न होगी.’ फ्लामेल ने हाथ बढ़ाया इस पुस्तक को लेने को,पर वह ले न सका.परी और वह पुस्तक दोनों ही एक सुनहरे मेघ में विलीन हो गयीं.

पेरिस में फ्लामेल का घर जहाँ अब रेस्तरां है 
फ्लामेल इस स्वप्न को भूल सा गया ,किंतु कुछ दिनों बाद, एक दिन एक अज्ञात व्यक्ति ने पैसों की खातिर उसके घर पर आकर एक पुरानी किताब बेची.जिसे देखते ही क्लामेल को भूले हुए स्वप्न की याद आ गयी.यह वही पुस्तक थी जिसे उसने स्वप्न में देखा था.फ्लामेल लिखता है........

दो फ़्लोरिन(सिक्का) में मुझे वह पुस्तक प्राप्त हुई,जो सुनहरे जिल्द की थी.एक बड़े आकार की और बहुत ही पुरानी पुस्तक थी.इसके पन्ने अन्य पुस्तकों की तरह कागज के नहीं बल्कि वृक्ष की छाल के थे.इसकी जिल्द तांबे की थी – बहुत कोमल.इसके ऊपर विचित्र प्रकार के अक्षर और रेखाओं से बनी हुई आकृतियां थीं.मैं इन्हें पढ़ने में असमर्थ था,सोचा शायद ये ग्रीक या ऐसी ही किसी और प्राचीन भाषा के शब्द हैं.छाल पृष्ठों पर लैटिन अक्षर खुदे हुए थे.पुस्तक के सात पृष्ठ तीन बार आते थे,पर इनका सातवां पृष्ठ हर बार अलिखित-कोरा ही आता था.पर पहली सिरीज के सातवें पृष्ठ पर एक डंडा बना हुआ था और दो सर्प,जो एक दूसरे को निगल रहे थे.

दूसरी सिरीज के सातवें पन्ने पर एक क्रॉस बना हुआ था,जिस पर एक सर्प फांसी पर लटकाया गया था.अंतिम सिरीज के सातवें पृष्ठ पर एक रेगिस्तान अंकित था,जिसके मध्य भाग से सुंदर झरने निकले हुए थे जिसमें से अनेक सर्प निकलकर जहां-तहां बिखर गए थे.प्रथम पृष्ठ पर ऐसे लोगों के लिए,जो लेखक या बलि देने वाले न होकर भी इस पुस्तक को पढ़ना चाहें,कई प्रकार के अभिशाप लिखे हुए थे.

पेरिस में फ्लामेल के नाम पर सड़क
पुस्तक के सभी पृष्ठों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं - सक्रिय व्यक्तियों और सर्प आदि की,पर कोई व्याख्या,किसी भी भाषा में न थी.ये सभी किसी बात के सूचक थे ,पर लाख कोशिशें करने पर भी फ्लामेल इन्हें समझने में व्यर्थ रहा.वह इतना अवश्य समझता था कि इनमें स्वर्ण निर्माण की प्रक्रियाएं बतायी गयी हैं.वह इन्हें जानने के लिए बैचैन रहने लगा,रात-दिन इसी प्रयास में रहता कि किसी तरह वह इन्हें समझ पाए.भूख-प्यास और नींद हराम हो गयी.वह इस ग्रंथ को किसी और को दिखाना भी नहीं   चाहता था.अंत में उसने एक तरीका निकाला और उसने पुस्तक के कुछ चित्रों की नकलकर उसे अपनी दुकान में टांग दिया और लोगों से उनकी व्याख्या पूछना शुरू कर दिया.

एनसेलम नामक एक चिकित्सक कीमिया में दिलचस्पी रखता था.एक दिन उसकी दृष्टि इन चित्रों पर पड़ी और वह समझ गया कि ये चित्र जरूर ही किसी कीमिया-ग्रंथ के हैं,पर फ्लामेल ने भेद नहीं खोला. उसे असलियत न बताकर सिर्फ चित्रों की व्याख्या पूछी.वह भी इन्हें पूरी तरह समझने में असमर्थ रहा,पर कुछ अनुमानित बातें उसे बतायीं.जिनके आधार पर फ्लामेल इक्कीस साल तक सोना बनाने का निष्फल प्रयोग करता रहा.

बार-बार असफल होकर फ्लामेल का धैर्य छूटने सा लगा था,एक दिन अचानक उसके ध्यान में आया कि पुस्तक को लिखने वाला अब्राहम नामक कोई यहूदी था,अत; कोई यहूदी ही इसकी असली व्याख्या बता सकेगा.इस विचार के आते ही वह स्पेन के लिए रवाना हो गया,जहां यहूदी कीमियागरों के होने की उन दिनों शोहरत थी.पूरे एक वर्ष वह यहूदियों के मंदिरों में घूमता रहा,पर उसे वह व्यक्ति न मिला जो उसकी आकांक्षा पूरी करता.अंत में जब वह हताश होकर लौट रहा था तब उसकी भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो उसका हमवतन था और पूर्व-परिचित भी.उसने उससे सारी बातें सुनने के बाद कहा कि वह एक ऐसे व्यक्ति को जानता है जो चित्र-लेखों को पढ़कर उनका रहस्य बताया करता है.

वह उसे कांशे नामक यहूदी के पास ले गया फ्लामेल ने चित्रों उनके साथ अंकित शब्दों की नकल को जो वह अपने साथ लाया था,उसे दिखाया.कांशे उन्हें देखते ही उछल पड़ा,बोला ये तो हिब्रू भाषा के उस महान ग्रन्थ के हैं,जिसे राबी अब्राहम ने लिखा था.यह तो अब अप्राप्य है,बहुत दिनों से यहूदी-समुदाय इसकी खोज करता आया है.और फिर उसने धाराप्रवाह उसके अर्थ बताने शुरू कर दिये.

मूल पुस्तक फ़्रांस में फ्लामेल के घर पर थी,इसलिए फ्लामेल के साथ कांशे भी फ़्रांस के लिए चल पड़ा.रास्ते में लंबे समुद्री यात्रा के अभ्यास नहीं होने और खराब स्वास्थ्य के कारण वह बेतरह बीमार हो गया.आरलियंस पहुँचते ही उसकी मृत्यु हो गयी.फ्लामेल उसे वहीँ एक चर्च में दफनाकर शोक संतप्त ह्रदय से घर लौटा और कांशे के बताए हुए अर्थों के सहारे पुनः पुस्तक पढ़ने और समझने के प्रयास में लग गया.

तीन वर्षों के अथक परिश्रम के बाद सफलता की कुंजी उसके हाथों में आयी.किताब पढ़-पढ़कर जिस प्रयोग में उसने तीन साल बिताये थे,उसका पूरा ज्ञान उसे हो गया.फ्लामेल उस रात को नहीं भूलता जब वह प्रयोग में जुटा था.सहसा पौंड लेड(एक धातु) चमकती हुई चांदी के रूप में निकल आया.फ्लामेल ने उस पर वह मिश्रण छोड़ी,जिसे वर्षों के परिश्रम के बाद तैयार की थी.तपाना जारी रखा ,धातु ने एक के बाद दूसरा,तीसरा,चौथा,पांचवां रंग बदला और अंत में वह एक सुर्ख रंग का गोला बन गया.

अर्द्ध निशा की नीरवता में फ्लामेल ने उसे आधा पौंड पारे में रखा.देखते ही देखते पारे के साथ मिलकर वह गोला स्वच्छ सोना बन गया.क्लामेल और उसकी पत्नी पर्नेल ख़ुशी से नाच उठे.फ्लामेल के जीवन की सबसे बड़ी मुराद पूरी हुई.इसके बाद फ्लामेल ने अपने जीवन में कितना सोना बनाया यह कहना मुश्किल है लेकिन अपने बनाये सोने की कीमत से चौदह अस्पताल,तीन चर्च और कम आय वाले लोगों के लिए कई घर बनवाये और कई दूसरी संस्थाओं को मदद दी.

सोना संबंधी अधिकांश पुस्तकों में सर्प का जिक्र आता है लेकिन यह किस वस्तु का लाक्षणिक शब्द है ,इस रहस्य का कभी पता नहीं चला.सोना बनाने के नुस्खे चाहे ने शब्दों में हों या चित्रों में – बड़े रहस्यपूर्ण होते थे,जिसका अर्थ कांशे जैसा कोई कीमियागर ही कर सकता था.कीमिया को संसार हमेशा से एक रहस्यपूर्ण विद्या ही समझता आया है.

पौराणिक कथाओं के पात्र

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पौराणिक कथाओं को पढ़ते या सुनते समय अक्सर यह प्रश्न उठता रहा है कि क्या पुराण कथाओं के पात्र पशु-पक्षी थे?कूर्म पुराण की एक कथा के अनुसार अमृत प्राप्त करने के लिए देवता और दैत्य जब समुद्र मंथन करने लगे तब भगवान ने कछुआ का अवतार लिया और समुद्र में प्रवेश करके मंदरांचल को पीठ पर धारण किया.

वाराह पुराण के अनुसार जब हिरण्याक्ष दैत्य धरती की चटाई पाताल ले गया,तो वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया और अपने एक ही दंष्ट्र पर धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया और उसे शेषनाग के फण पर प्रतिष्ठित किया.इस प्रकार विष्णु के दस अवतारों में से प्रथम तीन अवतार मानवेतर हैं.

विष्णु के चौथे अवतार नृसिंह का स्वरूप अर्ध-मानुषी है अर्थात आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का.पुराण कथाओं के ऐसे अन्य देवताओं में गणेश,हयग्रीव(सिर घोड़े का तथा धड़ मनुष्य का) और हनुमान(मुख और पूंछ बंदर की तथा शेष शरीर मानवीय) प्रमुख हैं.भारत ही नहीं चीन,जापान और तिब्बत में भ नाग कन्याओं का आधा रूप सर्प का तथा आधा मनुष्य जैसा है.गरुड़ के संबंध में पुराणों में बताया गया है कि उसके मस्तक पर चोंच तथा नख तो गरुड़ पक्षी के समान तथा शरीर और इन्द्रियां मनुष्य जैसी थीं.

पुराण कथाओं के पशु-पक्षी पात्रों का एक रूप देवी-देवता के वाहन के रूप में है – जैसे ऐरावत हाथी(इंद्र का वाहन,गरुड़(विष्णु),सिंह(दुर्गा),हंस(ब्रह्मा,सरस्वती,बैल(शिव),मूषक(गणेश),उल्लू(लक्ष्मी का वाहन).पुराण कथाओं के स्रोत के रूप में पक्षी भी मिलते हैं.एक ओर रामायण कथाओं के स्रोत के रूप में काक भुशुंडी हैं तो भागवत कथाओं के स्रोत शुक हैं.

इन पुराण कथाओं या मिथक कथाओं की भूमिका मात्र विश्वास के कारण ही है या इनकी कुछ सार्थकता भी है.इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है कि आक्रमण हुए,अकाल पड़ा,तूफ़ान आए,बाढ़,भूकंप आए और मानव जातियां एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चली गयीं.परंतु 

लोकवार्ताविज्ञान(फोकलोरिस्टीक्स) जानता है कि वे पुराकथाएँ वहां भी उनके साथ थीं,जो दादी से मां ने और मां से बेटी ने इसलिए सुनी थीं कि व्यक्ति का मन सामाजिक बन सके.एक मानवजाति दूसरी मानवजाति से मिली और एक पुराकथा दूसरी पुराकथा से मिली.भौगोलिक और सामाजिक परिवेश के परिवर्तन के साथ पुराकथाओं का भी कायाकल्प हुआ.

आज व्यक्ति और जनसमूह की पहचान भौगोलिक – संदर्भों,नस्लों,वंशों,पेशों और धर्मसंप्रदायों के आधार पर की जाती हैं,व्यापक संदर्भों में राष्ट्रीयता से तथा संकीर्ण संदर्भों में जाति,संप्रदाय,प्रांत और क्षेत्रों से. परंतु कबीलों के ज़माने में यह पहचान गणगोत्र के आधार पर की जाती थी. मानवेतर प्राणी को गण का देवता माना जाता था और गण के सभी सदस्य उसकी पूजा करते थे.पुरा कथाओं में पशु-पक्षी तथा मानवेतर प्राणियों का उल्लेख दो अर्थो में है या तो वह गण या जनजाति की सूचक है या देवता का सूचक है.

आज के समय में पुरा कथाओं के असंगत लगने का कारण यह है कि युग-परिवर्तन के साथ मनुष्य का अपने परिवेश के साथ संबंध बदल जाता है.आज की पीढ़ी अपने को प्रकृति से श्रेष्ठ मानता है परंतु   पुराकथाओं वाला मनुष्य प्रकृति में अपनी ही चेतना को देखता था और दिव्यता का आभास पाता था.इसलिए सूर्य की वैज्ञानिक अवधारणा सूर्य की पौराणिक अवधारणा से अलग है.पुराकथाओं के असंगत लगने का कारण लोकमानस की वह प्रवृत्ति है,जो लौकिक से अलौकिक की और है तथा जिसके संस्पर्श से सब कुछ दिव्य हो जाता है – धरती,पहाड़,आकाश,मेघ,समुद्र,वृक्ष,पशु,पक्षी सब देवस्वरूप बन जाते हैं.

वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान संस्कृत और प्राकृत भाषाओँ के ज्ञाता थे.हनुमान से पहले ही वार्तालाप में राम जान लेते हैं कि हनुमान चारों वेदों का ज्ञाता है.अशोक वाटिका में सीता से भेंट करे समय हनुमान सोचते हैं कि मैं कौन सी भाषा में बात करूं.......

यदि वाचं प्रदास्यामि हिजतिरिव संस्कृताम्
रावणं मन्यमानां तों सीता भीता भविष्यति |

क्या भाषाओँ पर ऐसा अधिकार किसी कपि या बंदर का हो सकता है?इसलिए डॉ. कामिल बुल्के ने स्पष्ट बताया था कि हनुमान वास्तव में वानरगोत्रीय आदिवासी थे.

इतिहास में मूषक,मत्स्य,कूर्म,कुक्कुर और वानर नामक टोटम जातियों का उल्लेख प्राप्त होता है.टोटम जातियों में सर्प-उपासक नागजाति का इतिहास तो बहुत समृद्ध है.इतिहास में नागराजाओं को उत्तम स्थापत्यकार,न्यायप्रिय और उत्तम रासायनिक बताया गया है.तक्षशिला,मथुरा नगर उन्होंने बसाये थे.रासायनिक नागार्जुन नागराज-पुत्रों में से था.

पुराणों में नाग और गरूड़ दोनों ही कश्यप की संतान हैं.पुराणों के अनुसार विष्णु शेषनाग पर शयन करते हैं.कृष्ण जन्म के समय शेषनाग फण फैलाकर उनकी रक्षा करता है.बलराम शेष के अवतार हैं.शिव के साथ सार्थ नाग हैं.

पौराणिक कथाओं के पात्र पशु-पक्षी सामान्य पशु-पक्षी नहीं हैं,वहां उनका अर्थ गहरा है जिसे हम गणगोत्र या टोटम के सूत्र से समझ सकते हैं.टोटम का इतिहास मानवीय धारणाओं ,देवताओं और जनजातियों की युगयात्रा और सामाजिक विकास की आत्मकथा है.भारतीय संस्कृति में इस तरह की अनेक धाराएं समायी हुई हैं.

दिलीप कुमार के बहाने

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पिछले दिनों जब पद्म विभूषण सम्मान लेते दिलीप साहब का भावहीन चेहरा टीवी पर देखा तो बहुत कुछ रीत गया.दिलीप साहब को ऐसे देखने की आदत नहीं थी.शायद वे इस दुनियां में रहते हुए भी यहाँ से मीलों दूर थे.बचपन से ही उनकी फ़िल्में देखते हुए बड़े हुए एक पूरी पीढ़ी के लिए सदमे जैसा था.हम सबके लिए तो वे वही दिलीप कुमार थे जो भोली मुस्कान लिए सिनेमाई परदे पर कौतूहल जगा देते.

बहरहाल,वक्त किसी का मोहताज नहीं होता.यह आम इन्सान और करिश्माई व्यक्तित्व में फर्क नहीं करता.उम्र का असर हर किसी पर होता है.पर जिसे हर वक्त कुछ अलग रूप में देखने की आदत होती है उसे किसी और रूप में देखने पर शॉक जैसा जरूर लगता है.

युसूफ खान दिलीप कुमार कैसे बने यह एक अलग वाकया है  लेकिन आज दिलीप साहब के बहाने एक पुराने वाकये की याद ताजा हो आई.पापा तब बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में बिहार के मुंगेर जिले में पदस्थापित थे.उनकी सरकारी जीप के ड्राईवर रिजवान और अर्दली मसी थे.रिजवान कोई २६-२७ साल का नवयुवक था.मैं तब स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहा था.

रिजवान से मेरी खूब पटती थी.इसका कारण यह भी था कि वह मुझे जीप चलाने से कभी नहीं रोकता था.रिजवान और मसी दोनों घर के सदस्य जैसे थे.कई बार हमलोगों को गाँव पहुंचाने भी चले आते.खाने पर माँ उन्हें बुलाने को कहती तो हम सब उन्हें ढूंढते रहते.बाद में पता चलता कि वे पड़ोस में मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठा रहे हैं.यहाँ तक कि सोने के लिए भी घर नहीं आते.

बाद में एक पड़ोसी ने बताया कि राजेन्द्र जी और महेंद्र जी का स्वभाव बहुत अच्छा है.मैं चौंक गया.राजेन्द्र और महेंद्र कौन हैं? अरे वही,आपके ड्राईवर और पिऊन.मैंने मन ही मन में सोचा तो,रिजवान राजेन्द्र और मसी महेंद्र बन गए हैं.जब वापस सपरिवार मुंगेर लौटते तो हम सब भाई-बहन इस वाकये पर खूब हँसते.

जब कभी रिजवान सामने दिख जाता तो उनसे पूछता,राजेन्द्र जी कैसे हैं? और महेंद्र जी कहाँ हैं.दोनों हम लोगों के साथ खूब ठहाका लगाते.मैंने उनसे कहा,यदि आप नाम नहीं बदलते तो भी आपकी इतनी ही खातिरदारी होती.

आज इस वाकये को कई वर्ष बीत चुके हैं.रिजवान शायद अभी भी नौकरी में होंगे और मसी रिटायर हो चुके होंगे लेकिन जब कभी भी सियासतदानों की असहिष्णुता पर सियासत करते देखता हूँ तो यह सोचने लगता हूँ कि शायद उन लोगों को हमारी गंगा-जमुनी तहजीब से वास्ता न पड़ा होगा.यह तहजीब तो हमारे दिल में बसता है.

विषकन्या नहीं विषपुरुष भी

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इन दिनों विभिन्न चैनलों पर विषकन्या की खूब चर्चा है.पिछले दिनों वायु सेना कर्मी रंजीत की जासूसी के आरोप में गिरफ्तारी और उस पर विषकन्या के प्रभाव और धन के लोभ के आरोपों ने सरकार को इनसे सचेत रहने के लिए डोजियर जारी करने पर मजबूर कर दिया है.

विषकन्या का प्रयोग भारत जैसे देशों के लिए नया नहीं है.भारतीय विषकन्याएं पश्चिम दुनियां के लिए एक अजूबा रही हैं.सिकंदर महान की हत्या की चेष्टा भारतीयों ने एक विषकन्या द्वारा करनी चाही थी,यह इतिहास प्रमाणित घटना है.

बारहवीं शताब्दी में रचित ‘कथासरितसागर’ में विष-कन्या के अस्तिव का प्रमाण मिलता है.सातवीं सदी के नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में भी विषकन्या का वर्णन है कि परिशिष्ट पर्वन की विषकन्या नंद द्वारा पालित थी.इस विषकन्या का पर्वत्तक ने आलिंगन किया था जिससे उसके शरीर के उत्ताप से पर्वत्तक की यंत्रणा दायक मृत्यु हुई.’शुभवाहुउत्तरी कथा’ नामक संस्कृत ग्रंथ की राजकन्या कामसुंदरी भी एक विषकन्या थी.

शिशु कन्या को तिल-तिल कर विष चटा कर किस तरह विषकन्या के रूप में परिवर्तित किया जाता था,इसका विवरण किसी ग्रन्थ में नहीं पाया जाता.विषकन्याएं राजा और मंत्री की इच्छा को पूर्ण करने के लिए बनायी जाती थी.रूपवती नवयुवती को अस्त्र बना कर शत्रु को समाप्त करने के लिए विषकन्याओं का उपयोग किया जाता था.

शिशु उम्र से ही कुछ कन्याओं को विषैला पदार्थ का सेवन कराकर,धीरे-धीरे उसकी मात्रा बढ़ाकर,उन्हें बड़ा किया जाता था.अधिकतर की तो कुछ ही दिनों में मृत्यु हो जाती थी और जो एक दो बच जाती थीं उन्हें किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की हत्या करने के लिए सुरक्षित रखा जाता था.

रूपसी की दृष्टि पुरुष के मन को आकुल कर देती थी.संस्कृत साहित्य में ऐसी नायिकाओं का वर्णन है,जिसके दर्शन से मनुष्य उन्माद की अवस्था में पहुंच जाता था और तब विषाद से ग्रस्त हो मरणासन्न हो अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता था.

यह भी सवाल उठता रहा है कि क्या विषपुरुष भी होते थे.पुरुष शासित समाज में सभी अधिकार पुरुषों के हाथ में भी रहे हैं.फिर भी कुछ विष पुरुष भी हुए हैं.

सोलहवीं शतब्दी में गुजरात का सुल्तान महमूद शाह भारत में एक विख्यात शासक हुआ है.विदेशी यात्रियों ने इस सुल्तान का जिक्र यात्रा वृत्तांतों में किया है.ऐसे ही एक यात्री भारथेमा ने लिखा है,महमूद के पिता ने कम उम्र से ही उसे विष खिलाना शुरू कर दिया था ताकि शत्रु उस पर विष का प्रयोग कर उस पर नुकसान न पहुंचा सके.वह विचित्र किस्म के विषों का सेवन करता था.वह पान चबा कर उसकी पीक किसी व्यक्ति के शरीर पर फेंक देता था तो उस व्यक्ति की मृत्यु सुनिश्चित ही हो जाती थी.

एक अन्य यात्री वारवोसा ने भी भी लिखा है कि सुल्तान महमूद के साथ रहने वाली युवती की मृत्यु निश्चित थी.महमूद अफीम खाता था.अफीम में गुण-दोष दोनों मौजूद होते हैं.जहां एक और यह विष है,वहीँ दूसरी ओर इसका उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता रहा है.

सवाल यह भी उठता है कि क्या अफीम खाकर कोई व्यक्ति विष पुरुष या विष कन्या बन सकती है? अधिक अफीम खाने से मौत हो सकती है,लेकिन थोड़ा-थोड़ा खाकर इसे हजम किया जा सकता है.लेकिन इससे कोई विष पुरुष नहीं बन सकता.गुजरात का सुल्तान महमूद शाह जनसाधारण में विष-पुरुष के रूप में चर्चित रहा था.

इतिहास में दूसरे विष-पुरुष के रूप में नादिरशाह का नाम आता है.कहा जाता है कि उसके निःश्वास में ही विष था.विषकन्याओं की तरह विष-पुरुष इतने प्रसिद्ध नहीं हुए.क्योंकि,शत्रु की हत्या के लिए विष-पुरुष कारगर अस्त्र नहीं थे.

उपनाम का क्रेज

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कवियों और साहित्यकारों में उपनाम रखने की एक लंबी परंपरा रही है.लेकिन ख़त्म होती परंपराओं के साथ इसका भी नाम जुड़ गया है.कभी हम इन कवियों और साहित्कारों को उपनाम से ही जानते थे.आम बोलचाल में भी उपनाम का ही प्रयोग होता था.

कई लोगों का विचार है कि कवियों द्वारा उपनाम रखने की परंपरा फ़ारसी और उर्दू कवियों की देन है.उन्हीं की देखादेखी हिंदी कवियों ने भी उपनाम रखने की परंपरा कायम की.हालांकि उपनाम रखने की परंपरा यहाँ प्राचीन संस्कृत कवियों में भी रही है.संस्कृत के अनेक कवि अपने उपनामों से ही अपनी पहचान बनाए हुए हैं.उपनामों की परंपरा वैदिक ऋषियों तक जाती है.आदिकवि वाल्मीकि के ही उपनाम हैं.शुनः शेप,शुनः पुच्छ,लोपामुद्रा उपनाम ही प्रतीत होते हैं.

हिंदी के प्रायः सभी कवि अपने उपनामों से ही प्रसिद्ध हैं.कहा तो यह भी जाता है कि इस परंपरा में विदेशी प्रभाव के साथ ही साहित्यिक चोरी भी इसका कारण रही है.अपनी कविता के बीच में अपना नाम दे देने से चोरी की आशंका कम हो जाती थी.

प्राचीन कवि उपनाम रखते थे तो अपने नाम के पूर्वांश या उत्तरांश को अपना उपनाम बनाते थे.बाद में कुछ कवियों ने अपने स्वभाव,नगर या गांव के नाम के आधार पर उपनामों का चुनाव किया.इससे अलग एक धारा के लोगों ने सुर्खियां बटोरने के लिए ‘लुच्चेश’,’धूर्त’,’बेहया’ जैसे उपनामों को अपनाया.पुराने हिंदी कवियों के कुछ उपनाम राजाओं द्वारा उपाधि के रूप में दिए गये हैं.इनमें महाकवि भूषण और भारतेंदु का नाम लिया जा सकता है.

संस्कृत के उपनाम वाले ऐसे अनेक कवि हैं जिनका वास्तविक नाम तक ज्ञात नहीं हैं. यथा,भिक्षाटन, निद्रादरिद्र,राक्षस,घटखर्पर,धाराकदंब,अश्वघोष,कपोलकवि,मूर्खकवि,मयूर,कपोत,कापालिकजैसे अनगिनत नाम हैं.

उपनामधारी संस्कृत कवियित्रियों में ‘विकटनितंबा,अवंतीसुंदरी,कुलटा,रजक सरस्वती, जघन-चपलाजैसे अनेक उपनाम शामिल है.इनमें से अनेक ऐसे हैं जिनकी शायद ही कोई रचना पुस्तक के रूप में उपलब्ध हो.अधिकतर की छिटपुट रचना या संग्रह के रूप में संकलित हैं.जिनकी रचनाएं उपलब्ध हैं उनमें, अश्वघोष,घटखर्पर और अवन्तीसुंदरी शामिल हैं.

अज्ञात कवियों के साथ ही कालिदास,माघ,भारवि,भवभूतिजैसे प्रख्यात कवियों के नाम भी उपनाम ही माने जाते हैं. महाकवि कालिदास का वास्तविक नाम कुछ लोगों के अनुसार मातृगुप्तहै.माघ और भारवि के संबंध में कहा जाता है कि आपसी प्रतिद्वंदिता के कारण इन्होंने अपने उपनाम रखे.’भा रवि’ का अर्थ  है – सूर्य की तेजस्विता.यह नामकरण देख माघ उपनाम वाले कवि ने घोषित किया कि वह भारवि हैं तो मैं ‘माघ’ हूं.माघ महीने में सूर्य की तेजी क्षीण हो जाती है.

अश्वघोषसंस्कृत के प्रख्यात महाकवि हैं.इनकी बुद्धचरित प्रख्यात रचना है.अश्वघोष का अर्थ है-घोड़े की आवाज.कहा जाता है कि वैदिक ब्राह्मण कुल में जन्म लेने और वेद के विद्वान बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए थे.घूम-घूमकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे.इससे चिढ़कर वैदिक ब्राह्मणों ने मजाक उड़ाना शुरू कर दिया कि जिधर देखो घोड़े की तरह हिनहिनाता रहता है.

कुछ लोगों का कहना है कि इनके प्रवचन इतने रोचक,सरस और मधुर होते थे कि हिनहिनाता घोड़ा भी तन्मयता से इनका प्रवचन सुनने लगता था.इन्हीं मनोमुग्धकारी प्रवचनों के कारण इनका नाम अश्वघोष हो गया.यह नाम इतना प्रचलित हो गया कि कवि ने भी इसे स्वीकार कर लिया.

संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि रहे हैं ‘भर्तृमेंठ’.इसका अर्थ है – पीलवानों का स्वामी.पिकनिकर उपनाम वाले कवि भी उक्ति विशेष के कारण उपनाम अलंकरण के रूप में प्राप्त हो गया.वे बेचारे जंगलों में भटकते हुए बिलखते हुए घूम रहे थे कि यदि वसंत की आग में झुलसकर मेरी चिर विरहणी प्रिया प्राण त्याग दे तो उसके वध के पाप का भागी कौन होगा? उसकी युवावस्था,स्नेह या कामदेव? कवि के यह प्रश्न करते ही कोकिलों की झंकार सुनायी दी कि ‘तू-तू तू तू ही’.

पुराने कवि चाहे उर्दू,फारसी या हिंदी के हों उपनाम जरूर रखते थे.हिंदी के कवि प्रसाद,निराला एवं कुछ और कवियों ने इस परंपरा का पालन नहीं किया.आधुनिक कविताओं,छंदों में उपनाम की गुंजाईश ही नहीं होती.अब नए लेखक और कवि उपनाम नहीं रखते.


लेखक से बड़ा होता किरदार

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अगाथा क्रिस्टी 
हरक्यूल पाईरो,शरलक होम्स,जेम्स बांड और हैरी पॉटर में क्या कोई समानता है?बिलकुल समानता है.ये सभी अगाथा क्रिस्टी,ऑर्थर कानन डायल,इयान फ्लेमिंग और जे.के.रोलिंग द्वारा गढ़े गए वे किरदार हैं जो अपार लोकप्रियता प्राप्त कर लोकप्रियता में इसके सृजक से भी आगे निकल गए हैं.
क्या कभी इन लेखकों ने कल्पना की होगी कि ये किरदार सर्वकालिक महान किरदार बन जाएंगे? 


आर्थर कानन डायल
अगाथा क्रिस्टी के मर्डर मिस्ट्री पर आधारित उपन्यास दुनियां के सभी भाषाओँ में अनुवादित हुए हैं और आज भी पाठकों में उत्सुकता जगाते हैं.शरलक होम्स ने अपराध की गुत्थी को सुलझाने के नए-नए आयाम बनाये. दुनियां भर के विभिन्न टी.वी चैनलों पर आज भी शरलक होम्स के धारावाहिक चल रहे हैं.


इयान फ्लेमिंग 
इयान फ्लेमिंग द्वारा सृजित जेम्स बांड का किरदार इस कदर लोकप्रिय हो गया है कि भारत सहित विभिन देशों ने इसके अवतार सृजित कर लिए.पिछले महीने दुनियां भर रिलीजजेम्स बांड सीरीज की फिल्म स्पेक्टर ने साबित किया कि आज भी बांड का किरदार उतना ही लोकप्रिय है,जितना पहले था..हॉलीवुड में बनी फंतासी फिल्मों का अलग ही क्रेज रहता है.जेम्स बांड के किरदार निभाने के कारण कई अभिनेताओं ने असीमलोकप्रियता प्राप्त की.रॉजर मूर,सीन कोनरी,टिमोथी डाल्टन,पियर्स ब्रासनन, डेनियल क्रेग जैसे अभिनेताओं के कारण जेम्स बांड सीरिज ने कई कीर्तिमान स्थापित किए.
जे.के.रॉलिंग
जे. के. रोलिंग द्वारा सृजित हैरी पॉटर सीरीज की किताबों के साथ इस पर बनी फ़िल्में भी उतनी ही लोकप्रिय हुईं.हैरी पॉटर का किरदार न केवल बच्चों बल्कि सभी आयु वर्गों में सराहा गया. हालांकि इस सीरीज की अंतिम किताब ‘हैरी पॉटर और मौत के तोहफे’(Harry Potter and the deathly halllows)रॉलिंग ने कई साल पहले लिखी और इस पर अंतिम फिल्म दो भागों में कई साल पहले रिलीज हुई लेकिन आज भी इसके किरदार की लोकप्रियता का आलम यह है कि कुछ महीने पहले इस सीरीज की फिल्मों में हर्माइनी ग्रेंजरका किरदार निभाने वाली ब्रिटिश अभिनेत्री एम्मा वाटसनने जब अपना 34वां जन्मदिन मनाया तो जे.के. रॉलिंग समेत तमाम प्रशंसकों ने उसके किरदार हर्माइनी के नाम से ही शुभकामना संदेश भेजे.

हाल ही में हैरी पॉटर सीरीज की फिल्मों में सीवियरस स्नेपका किरदार निभाने वाले ब्रिटिश अभिनेता एलन रिकमैनका कैंसर से निधन हुआ तो रॉलिंग समेत तमाम प्रशंसकों ने उनकी अदाकारी को शिद्दत से याद किया.गौरतलब है कि लोगों के जेहन में स्नेप का किरदार ही था जिसने उन्हें लोकप्रिय बनाया.

कई लेखकों,रचनाकारों के पात्रों को इस कदर लोकप्रियता मिली है कि लगता है कि वे इसके सृजक से भी ज्यादा चर्चित हो गए हैं.

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