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संस्कृत बनाम जर्मन और विलायती पारखी

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पिछले दिनों केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत बनाम जर्मन भाषा की पढ़ाई को लेकर काफी विवाद हुआ और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक भी गया.वैकल्पिक भाषा जर्मन हो या संस्कृत एवं आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता एवं उपादेयता अपनी जगह है लेकिन अतीत में संस्कृत के उत्थान में विलायती पारखियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

वारेन हेस्टिंग्स ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर बनना चाहता था,पूर्वी भाषाओँ का.वह अपनी अभिलाषाओं की आकृति अपने मस्तिष्क में बनाता रहा लेकिन इतिहास ने उसे अपनी छेनी हथौड़ी से कुछ और ही बना डाला.जब वह भारत में चालीस रूपये महीने का राइटर बनकर आया,तो क्लाइव ने उसे मुर्शिदाबाद भेजा था,वहां के नवाब पर नजर रखने.वारेन हेस्टिंग्स को फ़ारसी का स्वाद मुर्शिदाबाद में ही लगा और देखते ही देखते वह फ़ारसी भाषा तो क्या,फ़ारसी के शायरों के कलाम की अंतरात्मा खखोलने लगा.जब वह वापस इंगलैंड वापस लौटा था तब वह अपने मित्र डॉक्टर जॉनसन को घंटों फ़ारसी की कविता सुनाता और उसका तथ्य समझाता रहता.

अद्भुत कथाओं एवं दर्शन से भरे हिंदुओं,बौद्धों,एवं जैनों के धर्मग्रन्थ,फ़ारसी कविता एवं इतिहास के हस्तलिखित भंडार,विशाल धर्मस्थानों के स्मारक ,हेस्टिंग्स की रूचि के विषय थे.बाद में वही इन भारतीय ग्रंथों का हिमायती बन बैठा.1631 से 1641 तक पुलीकर में डच पादरी रॉजर्स ने सबसे पहले ‘भृतहरि शतक’ का डच भाषा में अनुवाद किया जिसे देखकर हेस्टिंग्स बहुत प्रभावित हुआ था.

हेस्टिंग्स कलकत्ते में गवर्नर जनरल बनकर आया तो उसने नगर के ग्यारह विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर हिंदुओं के धर्म और व्यवहार पर लिखने को कहा और जो भी तथ्य उन्होंने लिखकर दिए,उन्हें 1776 में इंगलैंड पहुंचा दिया.

1785 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सौदागर विलकिंस ने ‘भगवद्गीता’ का अंग्रेजी अनुवाद कर डाला और दो साल बाद ‘हितोपदेश की कथाएँ’ सब तरफ फ़ैल गईं.1791 में जब फार्स्टर ने ‘शकुंतला’ का अनुवाद किया तो हर्डर के हाथों होता हुआ जर्मन विद्वान् गेटे के पास पहुंचा.गेटे उसे पढ़कर आत्मविभोर हो गया और उसने अपने पद में कह डाला ‘समस्त स्वर्ग और पृथ्वी के जादू भरे आकर्षण का केंद्र बिंदु है तू, ओ शकुंतला.’

इसके बाद सर विलियम जोंस ने भी शकुंतला का अनुवाद किया था.उधर एक विदेशी प्रकांड पंडित सहसा साहित्य के मंच पर आ धमका - जर्मन पंडित – मैक्समूलर. ऋग्वेद के प्रकाशन के लिए ईस्ट इण्डिया कंपनी के निदेशकों ने उसे आर्थिक सहायता दी और उसने छह खण्डों में ऋग्वेद का भाष्य लिख डाला.

मैक्समूलर हमेशा एक दिवास्वप्न में खोया हुआ मग्न रहता और बार-बार कहता,”मैं बनारस के दर्शन का प्यासा हूं.मेरी इच्छा है कि मैं गंगा के पवित्र जल में स्नान करूं.मुझे सदैव यह आभास होता है कि मैं बनारस में ही रह रहा हूं.”

जर्मन विद्वान हंबोल्ट और गेटे तो कालिदास के काव्य पर पहले से ही मुग्ध थे.पूरे यूरोप में संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद की होड़ शुरू हो गयी.सबने यही माना कि संस्कृत ही सब भाषाओँ की जननी है.ग्रीक,लैटिन,फ़ारसी,केल्टिक,ट्युटॉनिक जैसी सभी भाषाओँ की.शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’ ने तो जर्मनी में धूम ही मचा दी.इस नाटक को ‘मड कार्ट’ का नाम देकर पहले अंग्रेजी मंच पर ही खेला गया और फिर जर्मन भाषा में ‘भौतलिंक’ बनकर यह रॉयल कोर्ट थियेटर बर्लिन और कोर्ट थियेटर म्यूनिख में छा ही गया.’ लिट्रेरी हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ में फ्रेजर लिखता है कि नाटक समाप्त होने पर नाटक के पात्रों को दर्शकों ने आठ बार बुलवाया था.

1791 में बनारस के रेजिडेंट डंकन ने सर्वप्रथम संस्कृत कॉलेज की नींव रखी और उनके प्रोत्साहन से ही सैकड़ों वर्ष बाद वाराणसी का शिवमय वातावरण स्रोतों और मन्त्रों से गूंज उठा.कोलरिज जब 1781 में कंपनी की सेवा में बंगाल आया तो उसने एशियाटिक सोसायटी को और भी संवारा.1784 में उसने सती प्रथा का अध्ययन कर एक पुस्तक लिखी ‘निष्ठावान हिन्दू विधवा’,फिर ‘हिन्दू कानून का नीति-संग्रह’.

जर्मन विद्वानों ने जी भर कर भारतीय साहित्य,वेद,उपनिषद,शास्त्र के मर्म को समझा और उनके अनुवाद कर डाले.जर्मन विद्वान् जोजफ ने ‘डॉस महाभारत’ बर्लिन में 1892 में छापा और ड्युसन ने ‘डॉस सिस्टम डैस वेदाज’ छापकर वेदों को विलायती पंडितों के सामने रखा.लुडविग ने ‘ऋग्वेद’ और मैक्समूलर ने ‘प्राचीन साहित्य का इतिहास’ लिखकर यूरोप में धूम मचा दी.

पादरी स्टीवेंसन ने ‘सामवेद’,डेवीज ने भगवद्गीता,ग्रिफिथ ने सामवेद, गार्ब ने ‘सांख्य दर्शन’,विल्सन ने ‘विष्णु पुराण’ प्रस्तुत करके स्वयं भारतवासियों को ही चकित कर दिया.यहाँ तक कि बुलंदशहर के कलक्टर ग्राउज ने ‘तुलसीकृत रामायण’ का अनुवाद कर डाला.ई.ट्रम्प ने सिखों के गुरुमुखी ग्रंथ ‘आदि ग्रंथ’ का अनुवाद कर दिखाया.अंग्रेजों की हिंदी और संस्कृत पर पकड़ अद्भुत ही हो गई थी.1803 में जब लल्लूलाल जी ने ‘प्रेमसागर’ लिखा तो उन्होने आवश्यक परामर्श जॉन गिलक्राइस्टर से लिया,जिसने उनकी पुस्तक की भूमिका हिंदी में लिखी है.

बंगाल के सशक्त उपन्यासों ने अंग्रेजों को इस प्रकार आकृष्ट किया कि वे उनका अनुवाद करने पर बाध्य हो गये.जेम्स टाड ने ‘राजस्थान की प्राचीन पूर्व कथा’ लिखकर  इतनी ख्याति पायी कि आज भी राजपूत परिवार विवाह संबंध से पूर्व इस विदेशी की पुस्तक से अपने वंश-वृक्ष और गोत्र आदि की पुष्टि करते हैं.

Keywords खोजशब्द :- Sanskrit vs German,German Philosophers,Maxmuller

बंदिशें और भी हैं

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हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव के लिए शत शरद जीवित रहने की कामना की थी – ‘जीवेम शरदः शतम्’और उसके लिए खान-पान,रहन-सहन आदि की एक आचार-संहिता तैयार की थी.उन्होंने कहा था कि शरीर से पूरा काम लें और उसे पूरा आराम दें.पूरी नींद सोएं और सूर्य निकलने से पहले उठें.

अंग्रेजी में कहावत है कि –

अर्ली टू बेड एंड अर्ली टू राइज
मेक्स ए मैन,वेल्दी ऐंड वाइज

(रात में जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने से मनुष्य स्वस्थ,धनवान और बुद्धिमान होता है.)

लेकिन आज कुछ वैज्ञानिक इस ‘स्वर्ण-नियम’ को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानने लगे हैं.उनका कहना है कि पृथ्वी का वायुमंडल इतना दूषित हो गया है कि वातावरण में पायी जाने वाली ओजोन परत की तह भी नष्ट होने लगी है.फलस्वरूप प्रातःकालीन सूर्य की किरणों में जो अल्ट्रा-वायलेट किरणें शरीर के लिए लाभप्रद होती थीं, वे अब त्वचा-कैंसर पैदा कर सकती हैं.चिकित्सकों का कहना है कि पर्यावरण के दूषित होने से आज का आदमी रासायनिक विद्युत-चुम्बकीय और सोनिक प्रदूषण के गहरे सागर में तैर रहा है,जो उसके लिए प्राणघातक है.इसी तरह खाने-पीने की वस्तुओं के बारे में समय-समय पर हुई नयी खोजों ने भी तहलका मचा दिया है.

पिछले दिनों अख़बारों में निकला कि डाक्टरों ने चाय,कॉफ़ी और दूध को भी हानिप्रद माना है,क्योंकि इनसे शरीर में ‘कोलेस्ट्रोल’ की मात्रा बढ़ जाती है,फलस्वरूप ह्रदय-रोग और आँतों का  कैंसर हो सकता है.

यह बात चाय,कॉफ़ी और दूध तक ही सीमित होती तो गनीमत थी,लेकिन ऐसी अनेक नयी खोजों ने जीना ही हराम कर दिया है.कुछ डॉक्टरों ने मक्खन को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया है तो कुछ ने अंडे को,कुछ ने मांस को तो कुछ ने चीनी को.ब्रिटेन के एक डॉक्टर ने बताया था कि नमक अधिक खाने से रक्त में सोडियम की मात्रा बढ़ती है और इससे आत्महत्या की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सकती है.उन्होंने अपनी खोज में यही पाया है कि आत्महत्या करने वालों के रक्त में सोडियम की अधिक मात्रा पायी गयी.

कैंसर,ह्रदय रोग जैसे इस युग के ऐसे प्राणघातक रोग हैं जिनका भय रोगों को सताता रहता है.इन रोगों का पहले कोई विशेष लक्षण नहीं मालूम होता,जिससे पहले से बचाव किया जा सके.प्रायः लोगो का इनकी ओर तभी ध्यान जाता है,जब ये पूरी तरह उभर आते हैं और उस समय मनुष्य मृत्यु के कगार पर खड़ा होता है.अनेक नयी खोजें यह बताती हैं कि खाने-पीने की कितनी ही चीजें इन महारोगों के साथ जुड़ी हैं.

आज के वैज्ञानिकों ने खाने-पीने की चीजों के संबंध में जो निष्कर्ष निकाले हैं,उनके कारण हम अपने को ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में पाते हैं कि खाद्य-अखाद्य का निर्णय करना कठिन हो गया है.शायद मानव अब यह सुनने की प्रतीक्षा में है कि आदमी की जिंदगी ही मौत का सबसे बड़ा कारण है.अतः वैज्ञानिकों के लिए किसी भी चीज को खतरनाक बताना आसान है.

आंकड़ों की बाजीगरी की एक मिसाल कई साल पहले ‘हॉस्पिटल प्रैक्टिस’ पत्रिका में डॉ. मोरोत्विज के लेख से मिलती है.मोरोत्विज ने धूम्रपान के मौत और विकृतियों के साथ संबंध पर श्रमसाध्य अध्ययन किया.उनके इस अध्ययन के मूल निष्कर्ष को अमेरिका सहित दुनिया के सभी देशों में सिगरेट के डब्बों पर छपा हुआ देखा जा सकता है.सिगरेट के डब्बों पर लिखा रहता है : “चेतावनी : धूम्रपान आपके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है.”

मोरोत्विज ने भोजन की किस्म और मृत्यु-दर के संबंध में भी आश्चर्यजनक आंकड़े दिए है.इन आंकड़ों के अनुसार तला हुआ भोजन अधिक उपयुक्त है.दूसरे अध्ययन में उन्होंने नींद और मृत्यु-दर के संबंध में आंकड़े प्रस्तुत करते हुए बताया है कि रात में छह घंटे से कम सोना और नौ घंटे से अधिक सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकर है.मोरोत्विज के अनुसार अधिक जीने के लिए अधिक से अधिक पढ़ना चाहिए.

कद का भी मौत के साथ संबंध हो सकता है,यह शायद हम सबने कभी सोचा भी न हो,लेकिन मोरोत्विज के निष्कर्षों के अनुसार साढ़े 5 फुट से 6 फुट 1 इंच तक की लंबाईवाले व्यक्तियों की मृत्यु-दर क्रमशः कम होती जाती है.

इन सभी नयी खोजों और इनके निष्कर्षों को पढ़कर सवाल उठता है कि क्या इन सलाहों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए? जबाब शायद यही होगा कि – शायद नहीं,क्योंकि इन्हें गंभीरता पूर्वक लें तो जीना ही दूभर हो जाय.इसलिए यदि जीना है तो सबकुछ मजे में खाएं और प्रसन्नचित्त रहें.

Keywords खोजशब्द :- Balanced  Diet, What to eat, Life Style

सच ! जो सामने आया ही नहीं

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कास्पर हाउजर

व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों को स्पष्ट करने के लिए राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र विषयक पुस्तकों में कई उदाहरण दिए जाते रहे हैं कि किस तरह समाज से बाहर पलने वाले व्यक्तियों  में मानवोचित गुणों का विकास नहीं हो पाता है.जन्म के समय बच्चा एक प्राणीशास्त्रीय जीव मात्र होता है और उसके समाजीकरण एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज का होना आवश्यक है.

इस संदर्भ में अन्ना,भेड़िया बालक रामू,कमला और कास्पर हाउजर का जिक्र अक्सर होता रहा है.लेकिन उसके बारे में सिर्फ यही जानकारी दी जाती है कि 1828 में न्यूरेमबर्ग में सत्रह वर्ष के बच्चे कास्पर हाउजर का पता चला जिसे संभवतः राजनीतिक कारणों से मानव संपर्क से अलग कर दिया गया था.समाज के संपर्क के अभाव के कारण उसमें मानवोचित गुणों का विकास नहीं हो सका. लेकिन,पौने दो सौ साल बाद भी क्या कास्पर हाउजर की गुत्थी सुलझ सकी है?

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक किशोर के कारण पूरा यूरोप विचित्र किस्म की चर्चाओं से घिर गया था.शायद ही कोई पढ़ा-लिखा घर होगा,जहाँ ये चर्चाएं न हुई होंगी.

26 मई 1828 को जर्मनी के न्यूरेमबर्ग के खूबसूरत शहर में खून से लथपथ सोलह वर्षीय कास्पर हाउजर दिखाई दिया था.उसने दावा किया कि अपनी उम्र का अधिकांश हिस्सा उसने एक छोटी सी कोठरी में कैद हुए बिताया था.उसके समकालीनों में अधिकांश का विश्वास था कि वह किसी राजवंश का एकलौता वारिस है और किसी ने जान-बूझकर उसका अधिकार हड़पने के लिए उसे बेनाम बना डाला था.कुछ लोगों का कहना था कि वह अपनी झूठी कहानी के बल पर यश प्राप्त करना चाहता है.
अंसबाख(जर्मनी) में कास्पर की मूर्ति
न्यूरेमबर्ग,में उस दिन एक धार्मिक उत्सव था.जब वह नगर में दिखाई दिया,उसके बदन पर धारीदार कपड़े लेकिन चीथड़ों की शक्ल में थे.सबसे पहले उसे शहर के एक मोची ने देखा था.बोलने में असमर्थ उसने मोची को एक चिठ्ठी दिखाई थी,जिस पर फौज की चौथी टुकड़ी के छठे दस्ते में कार्यरत एक कप्तान का  पता लिखा था.उसे कप्तान के पते पर पहुंचाया गया.

कप्तान के इंतजार में बिताये वक्त में वहां उपस्थित लोगो को पूरी तरह यकीन हो गया कि उसे बरसों मानवीय वातावरण से परे रखा गया था,क्योंकि वहां उसने जलती मोमबत्ती पर हाथ रख दिया था और जब हाथ जला तब वह जानवरों की-सी बोली में चीखा था.वह सिर्फ दो शब्द जानता था- नहीं मालूम ! दीवाल घड़ी से वह इतना घबरा गया था कि उसे एक जीवित जानवर समझकर वह घड़ी के पास भी नहीं गया.

कप्तान को देखते ही वह खुश तो जरूर हुआ,पर कप्तान उससे कुछ भी नहीं बुलवा सका था.दो चिठ्ठियाँ  जो उससे मिली थी,धोखाधड़ी लगती थीं.उसमें प्रार्थना की गयी थी कि उसे फौज में भर्ती कर लिया जाय और अगर नौकरी न दे दी जाय तो उसे मार डाला जाय !
सबसे विलक्षण पक्ष था,उसका सधे हाथों से लिखना- कास्पर हाउजर ! पर दूसरी बातों का उत्तर वह इतना ही दे पाया,’नहीं मालूम.’

उसके पैरों में बेड़ियों के निशान थे.पुलिस जेलर ने कहा था कि वह बिना अपनी जांघ सिकोड़े या हिलाये घंटों बैठ सकता है.पर खड़े होने होने में उसे कभी-कभी असह्य तकलीफ होती थी.उसे रोशनी की बजाय अंधेरा पसंद था.जल्दी ही वह किशोर लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया,पर वह भीड़ से बिलकुल विचलित नहीं होता था,बल्कि चुपचाप अपने एक छोटे से काठ के घोड़े से खेलता रहता और घंटों तक घड़ी की टिकटिक ताकते हुए आनंदित होता रहता था.

बहुत बचपन में,जहाँ तक कास्पर हाउजर को याद था,उसे एक अँधेरी कोठरी में कहीं जंगल के बीच में कैद कर लिया गया था.उसे खुद भी मालूम नहीं था कि वह कहाँ से आया,मूल रूप से कौन था?पर जिस कोठरी में उसे कैद किया गया था,उसमें इतना ही जगह था कि वह पाँव पसारे सो सकता था,लेकिन कभी पूरी तरह खड़ा नहीं हो सकता था,कारण कोठरी या तहखाने की ऊंचाई बेहद कम थी.

इस कैद से छुटकारे के कुछ ही दिन पहले एक आदमी उसे तहखाने में दिखायी दिया था.उसी ने हाउजर को उसका नाम लिखना सिखाया था,उसी ने उसे दो-तीन वाक्य भी सिखाये थे.
फिर एक सुबह उसने खुद को खुले आसमान के नीचे राजमार्ग पर पाया.उसे मालूम ही न था कि किस दिशा में जाए.वाही अजनबी,जिसने उसे नाम सिखाया था,उसे न्यूरेमबर्ग छोड़ आया था.वह हाउजर को दिलासा दे चुका था कि जब वह बड़ा अच्छा सैनिक बनेगा तब उसे एक बड़ा घोड़ा दे देगा.

रातों रात कास्पर हाउजर की ख्याति न्यूरेमबर्ग से फैलकर पूरे देश में व्याप्त हो गयी और कुछ ही दिनों में पूरे यूरोप में.उसके अतीत के भी असंख्य दावेदार पैदा हो गये थे.न्यूरेमबर्ग अधिकारीयों ने उसे जेल से मुक्त कर अपने समय के प्रख्यात शिक्षाविद प्रोफ़ेसर जॉर्ज फ्रैड्रिक हाउजर को सौंप दिया.तभी एक हादसा हुआ कि प्रोफ़ेसर के घर में वह खून में लथपथ पाया गया.होश में आने पर उसने बताया कि कोई अजनबी आकर उसके सर पर प्रहार कर गया था.

लोगों को विश्वास हो गया था कि कास्पर हाउजर पर हमला उसी आदमी ने किया होगा,जिसने उसे अँधेरे तहखाने में बरसों कैद रखा.लिहाजा कास्पर हाउजर की सुरक्षा के कड़े प्रबंध किये गये.परंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो उसकी कहानी को बकवास मानते थे.उन्होंने नगर निगम पर आरोप लगाया कि वह ‘कास्पर हाउजर’ के बारे में सहानुभूति जगाकर लोगों से पैसा इकट्ठा कर रहे हैं और उस पैसे का गोलमाल कर रहे हैं.

1831 में एक अंग्रेज लार्ड स्टेनहोप ने उसमें दिलचस्पी दिखाई और उसकी आर्थिक मदद की. कास्पर हाउजर को लेकर वे यूरोप के बहुत से रजवाड़ों में घूमे.फिर तो रजवाड़ों में परस्पर कलह और द्वंद इस कदर बढ़े कि बहुतों को कास्पर हाउजर से रक्त-संबंधों के उन बयानों का खंडन करना पड़ा,जो अफवाहों के रूप में प्रचलित हो गये थे.कही-कहीं तो कई राजवंशियों को द्वंद-युद्ध में अपनी जानें भी गंवानी पड़ी.

लेकिन जैसे वह एकाएक न्यूरेमबर्ग में आया था,वैसे ही एकाएक उसकी मौत भी हो गयी.किसी ने उसे इस लालच में वह उसकी मां के बारे में सब-कुछ बताएगा,उसे पार्क में आने का निमंत्रण दिया,वहीँ उसे चाकू से मार डाला. 

कास्पर डॉ. मेयर को सिर्फ यही बता सका,चाकू ! पार्क,बटुआ,...दौड़ो,पकड़ो ! पुलिस ने पार्क का चप्पा-चप्पा छान मारा.सिर्फ वह बटुआ मिला जिसमें एक कागज था.उस पर उलटी सीधी इबारत लिखी थी जिसे शीशे के सामने ही ठीकठाक पढ़ा जा सकता था.हाउजर की तरह विचित्र था,वह कागज.”हाउजर ही बता सकता है कि मैं कौन हूं! कहाँ से आया...कैसा लगता हूं! मैं अमुक रजवाड़े से आया हूं..... मेरा नाम है...म ल ओ .” पार्क में बर्फ पर सिर्फ कास्पर हाउजर के पाँव के निशान थे.

डॉ. मेयर और पुलिस की खोजों का यह निष्कर्ष था कि यह सब कास्पर हाउजर का ही नाटक था.हाउजर की गलती से छूरा ज्यादा गहरे घुस गया था.जब तक वह होश में रहा,बहुत कोशिश की गयी कि वह स्वीकार कर ले ! पर मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व उसके शब्द थे- “यह मैंने खुद नहीं किया.”

पौने दो सौ बरसों से अधिक समय के बाद भी यह जिज्ञासा बनी हुई है कि आखिर कास्पर हाउजर का रहस्य क्या था ?

Keywords खोजशब्द :- Man and Society,Story of Kaspar Hauser,Human Society

गुमशुदा बौद्ध तीर्थ

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स्तूप का अवशेष 


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद का संकिसा गाँव बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण तीर्थ होने के साथ ही एक अति प्राचीनकालीन महानगर रहा है,जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के आदिकांड के पचीसवें सर्ग में मिलता है.इसके पास में बहने वाली वर्तमान काली नदी उस समय इक्षुमती नाम से जानी जाती थी.
मिथिला के राजा जनक अपने पुरोहित शतानंद से कहते हैं.......

भ्राता मम महातेजा वीर्यवानति धार्मिकः
कुशध्वज इति ख्यातः पूरीम धवसच्छुभाम ||
वार्या फलक पर्यतां पिवन्निक्षमती नदीम |
सांकाश्यां पुण्य संकाशां विमानमिव पुष्पकम् ||

(महातेजस्वी पराक्रमी अति धार्मिक मेरे भाई कुशध्वज सुंदर संकाश्य नगरी में हैं.वह नगरी आक्रमण को रोकने के लिए चारदीवारी की ढाल से सुरक्षित है.उस नगरी में से होकर इक्षुमती नदी बहती है.जिसका मधुर जल कुशध्वज पीते हैं और वह नगरी पुष्पक विमान के समान सुखदायिनी है.)

पाणिनि की अष्टाध्यायी और चीनी यात्री फाह्यान एवं ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में इस नगर का  सविस्तार विवरण मिलता है.
बुद्ध के साथ ब्रह्मा एवं इंद्र की मूर्ति 
बौद्ध साहित्य में  सांकाश्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है,क्योंकि भगवान् बुद्ध यहाँ स्वर्ग से सीढ़ी द्वारा उतरे थे.बौद्धों की प्राचीन मान्यता के अनुसार भगवान् बुद्ध अपनी माता महामाया को धर्म का उपदेश देने के लिए त्रयस्त्रिंश स्वर्ग गये थे.पारिजात वृक्ष के नीचे पांडु कंबल शिलासन पर बैठे उन्होंने अपनी माता को सम्मुख कर सभी उपस्थित देवों को तीन माह तक धर्म का उपदेश दिया.वर्षाकाल समाप्त होने पर आश्विन पूर्णिमा के दिन वे सांकाश्य नामक स्थान में पृथ्वी पर उतरे.

उस समय देवताओं ने सांकाश्य में तीन बहुमूल्य सीढ़ियाँ लगा दीं,जो क्रमशः मणियों,सोने और चांदी की थी.इस प्रकार भगवान् बुद्ध सद्धर्म भवन से चलकर देव मण्डली के साथ बीच वाली सोने की सीढ़ी से उतरे,उनके साथ दायीं ओर ब्रह्मा चांदी की सीढ़ी पर चंवर लेकर एवं बायीं ओर इंद्र बहुमूल्य छत्र लेकर मणियों वाली सीढ़ी से उतरे.उस समय उनके दर्शन के लिए देश-देशांतर के राजा एवं जनता इकट्ठी हुई.

साँची स्तूप के उत्तरी तोरण द्वार के खंभे पर बुद्ध अवतरण की घटना पत्थर पर खुदी हुई चित्रित है.इसमें ऊपर से नीचे तक एक लम्बी सीढ़ी लगी दिखाई गयी है.ऊपर और नीचे की दोनों सीढ़ियों पर वज्रासन और बोधिवृक्ष बने हैं.यह दिखाने की कोशिश की गयी है कि भगवान बुद्ध भूमि पर आ गये हैं.

देवावतरणकी यह घटना भगवान् बुद्ध के जीवन काल की अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक मानी गयी है और सांकाश्य का नाम उन आठ महातीर्थों में से एक माना जाता है, जहाँ बौद्ध लोग अपने जीवन में एक बार अवश्य जाना चाहते हैं.आठ महातीर्थों में यही ऐसा स्थान है,जो लगभग अज्ञात सा है.

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि भगवान् बुद्ध के उतरने के बाद ये सीढ़ियाँ कई शताब्दी तक दिखायी देती रहीं और बाद में लुप्त हो गयीं.सम्राट अशोक स्वयं सांकाश्य में पधारे थे.उन्होंने इस सीढ़ियों वाले स्थान को यहाँ तक खुदवाया कि नीचे पीले पानी का सोता निकल आया लेकिन सीढ़ियों का कोई पता नहीं चला.तब उन्होंने निराश होकर उसी स्थान पर रत्नजड़ित ईटों तथा पत्थर से वैसी ही सीढ़ियाँ,जिनकी ऊंचाई 70 फुट की बताई गयी है,बनवायीं और उनके ऊपर बौद्ध विहार बनवाया जिसमें भगवान बुद्ध की मूर्ति और अगल-बगल सीढ़ियों पर ब्रह्मा एवं इंद्र की पत्थर की मूर्तियाँ बनवायीं.

सीढ़ियों के पश्चिम की ओर थोड़ी ही दूर पर चारों ओर भगवान बुद्ध के बैठने-उठने के चिन्ह बने हुए हैं.इनके निकट ही दूसरा स्तूप है,जहाँ पर स्वर्ग से उतरने के तुरंत बाद तथागत ने स्नान किया.इसी स्थान पर एक मीनार के होने का भी वर्णन मिलता है,जहाँ सबसे पहले शाक्य वंश की राजकुमारी उत्पल वर्षा को बुद्ध के दर्शन मिले थे.

मौर्य सम्राट अशोक तथा उनके पश्चात के राजाओं ने अनेक भवन आदि बनवाये.कहा जाता है कि गाँव के लोगों ने आज तक मकान बनाने केलिए पक्की ईटें एवं मूर्तियाँ नहीं खरीदीं,बल्कि खेत में हल चलाते हुए, भराव के लिए मिट्टी खोदते समय बरसात में टीला धंसने आदि से ईटें एवं मूर्तियाँ मिल जाती हैं.


स्तंभ 
शेरवाले स्तंभ शीर्ष के पूर्व में एक प्राचीन मंदिर का भग्नावशेष है,जिसे अब विषहरी देवी का मंदिर कहा जाता है.वर्तमान में हाल में बने इस छोटे से मंदिर में कोई प्राचीन मूर्ति न होकर एक छोटी सी देवी की मूर्ति है,जिसे विषहरी देवी माना जाता है.यहाँ श्रावण माह में बड़ा देवी मेला लगता है.देवी के प्रति दूर-दूर तक जन–सामान्य में यह आस्था है कि किसी विषैले कीड़े के काटे हुए व्यक्ति को यहाँ पहुँचाने पर विषहरी देवी की कृपा से शीघ्र लाभ मिलता है.विगत कुछ वर्षों में इस मंदिर को लेकर बौद्धों और सनातनी हिंदुओं में विवाद भी रहा है.

इसमें कोई संदेह नहीं सांकाश्य धर्म,शिक्षा,व्यापार आदि की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण नगर रहा होगा,जिसकी प्रसिद्धि सुनकर चीनी यात्री भी यहाँ पहुंचे थे,जबकि यात्रा करना काफी दुरूह था.समय बीतने के साथ यह नगर बिलकुल नष्ट हो गया और इसके स्थान का पता तक नहीं रहा.

1842 में अंग्रेज जनरल कनिंघम ने अपने दौरों के बीच सांकाश्य को खोज निकाला.उन्होंने सांकाश्य की पहचान संकिसा गाँव से की.बौद्धों के तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ संकिसा हिंदुओं के लिए भी एक पवित्र स्थान है.

Keywords खोजशब्द :- संकिसा,सांकाश्य,देवावतरण,बुद्ध 

लोकतंत्र बनाम कार्टूनतंत्र

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आर.के. लक्ष्मण  का  कार्टून 

पिछले दिनों फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के संपादक और कार्टूनिस्ट की हत्या ने एक नई बहस छेड़ दी है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या हो? लोकतंत्र में ही कार्टूनतंत्र फलता-फूलता है. लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर किसी को अपनी बात कहने का हक़ है भले ही माध्यम अलग-अलग क्यों न हो.लेकिन जहाँ धर्म का मसला आता है वहां सभी मुद्दे गौण हो जाते हैं.

आज की पत्र-पत्रिकाओं में मुद्रित कार्टूनों को देखकर पाठकों के होठों पर एक पल के लिए मुस्कान बिखर जाती है.मगर आज से लगभग दो सौ वर्षों पूर्व यह स्थिति नहीं थी.क्योंकि,उस समय पत्र-पत्रिकाओं में कार्टूनों का नामोनिशान नहीं होता था.

कहा जाता है कि कार्टूनों का जन्म अमेरिका के स्वाधीनता-संग्राम के दौरान हुआ था और औद्योगिक क्रांति के समय यूरोप में परवान चढ़ा.गुलाम अमरीकियों में राजनीतिक चेतना जगाने के लिए पॉल रिवेरी नामक चित्रकार द्वारा प्रवर्तित यह कला आज दुनियां भर के लोगों में राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना जगाने में व्यस्त है.
आर. के. लक्ष्मण का कार्टून 
चूंकि,कार्टूनों का उपयोग व्यवस्था का विरोध करने के लिए किया गया,इसलिए कुछ लोग प्रारंभ से ही कार्टूनकार को ‘एंटी एस्टेब्लिशमेंट’ मानते हैं.कार्टूनकारों को जन्म देने में लोकतंत्र द्वारा निभायी गयी भूमिका को देखते हुए यह आशा भी की जा सकती है जब तक लोकतंत्र की पौध को राजनीतिज्ञ प्रेम से सींचते रहेंगे,तब तक कार्टूनतंत्र भी फलता फूलता रहेगा.

इटली में पहले-पहल इन चित्रों को ‘केरिकेतुरा’ कहा गया.अंग्रेजों ने इन्हें ‘केरिकेचर’ तथा अमरीकियों ने ‘कार्टून’ कहा.उन दिनों ये कार्टून मोटे पेपर पर छपकर,बिना पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम के,स्वयं ही जनता के बीच लोकप्रिय होते रहे.इसके अनेक वर्षों के बाद कार्टून ‘न्यूयार्क टाइम्स’ तथा ‘हार्वर्स वीकली’ जैसे पत्रों में छपने लगे.

पहले,इन कार्टूनों में सामाजिक बुराइयों को ही प्रमुखता मिली.ऐसा मानने का ठोस आधार यह है कि कार्टून कला की उत्पत्ति हुए जहाँ दो शताब्दियाँ गुजर गई हैं,वहां राजनीतिक कार्टून सिर्फ सौ वर्ष पुराने ही मिलते हैं.’स्ट्रिप कार्टूनों’ की उम्र तो अभी मात्र ८५ वर्ष मानी गई है.

कार्टून की पहली और अंतिम शर्त हास्य-व्यंग्य ही होती है.जिस चित्ताकर्षक चित्र का शीर्षक एक वाक्य का हो,उसे ही ‘कार्टून’ कह सकते हैं.इस कसौटी पर देखा जाय,तो आज जो कार्टून के नाम पर छापा जा रहा है,उसमें अधिकांश को कार्टून माना ही नहीं जा सकता.जिस कार्टून को देखते ही हंसी आ जाती हो,जिसे शीर्षक या ‘डायलॉग’ देने की जरूरत नहीं पड़ती हो ,उसे उत्कृष्ट श्रेणी का कार्टून माना जाता है.अधिकांश कार्टूनों में यह भी देखा जा रहा है कि पाठकगण कार्टून को नजरंदाज कर सिर्फ शीर्षक पढ़कर हास्य-व्यंग्य का मजा लेते हैं.मगर इस तरह के चुटकुले ‘कार्टून’ नहीं हुआ करते.चित्र एवं शीर्षक के बीच अटूट संबध होना चाहिए.

कार्टून दो प्रकार के होते हैं-राजनीतिक अवं सामाजिक.इन दोनों  प्रकारों के कार्टूनों में जो व्यंग्य प्रयुक्त किया जाता है,वह भी मुख्यतः दो तरह का होता है- श्रृंगारमिश्रित व्यंग्य तथा करूणामिश्रित  व्यंग्य.राजनीतिक कार्टून प्रायः तीखे व्यंग्य से सने होते हैं.इसे कार्टून विधा की तीसरी श्रेणी कह सकते हैं.

दैनिक समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर छपने वाले ऐसे राजनीतिक कार्टून उन पत्रों के नीतिगत प्रवक्ता भी होते हैं.इसलिए राजनीतिक कार्टूनकारों में एक संपादक के जितनी राजनीतिक सूझबूझ एवं पत्रकारिता की उत्कृष्ट जानकारी पायी जाती है.शंकर,अबू,आर.के. लक्ष्मण,सुधीर जैसे कार्टूनकारों को मिली लोकप्रियता इसका प्रमाण है.

ज्वलंत समस्याओं पर आम आदमी को केंद्रित कर बनाया गया कार्टून जहाँ करूणामिश्रित हास्य-व्यंग्य उत्पन्न करता है ,वहीँ श्रृंगार रस के कार्टून मुख्यतः प्रेमी-प्रेमिकाओं तथा पति-पत्नी के संबंधों पर बनाये जाते हैं.

स्ट्रिप-कार्टूनों के क्षेत्र में हम अब भी पिछड़े हैं.अधिकांश पत्र-पत्रिकाएं स्ट्रिप-कार्टूनों के लिए धन खर्च करने की स्थिति में नहीं होती.आर्थिक रूप से सुदृढ़ बड़े प्रकाशन समूहों की पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय की जगह विदेशी फीचर्स सिंडिकेटों की ‘ब्लांडी’,’मट एंड जेफ़’ एवं बीटल जैसी कार्टून-स्ट्रिप छापती हैं.फीचर्स सिंडिकेटों से प्राप्त स्ट्रिप कार्टूनों में उत्कृष्टता नहीं होती.’यंग एंड रेमंड’ की ‘ब्लांडी’ अब तक लगभग विश्व की 1300 से भी अधिक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी है.इस दिशा में भारत को भी अपना योगदान देना चाहिए.

यहाँ कार्टूनकारों के समक्ष एक मुख्य समस्या आर्थिक भी है.कुछ बड़े पत्रों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश पत्रों में न कोई कार्टूनकार फ्रीलांसिंग कर आर्थिक स्थिति को बेहतर कर सकता है और न ‘स्टाफर’ होकर ही.अधिकतर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कार्टूनों का उपयोग ‘फिलर’ के तौर पर किया जाता है.

अतः कार्टूनों का स्तर उठाने के लिए यह जरूरी है कि एक स्वतंत्र तथा विकसित विधा के रूप में ही इसका उपयोग हो.कार्टूनकारों को पर्याप्त पारिश्रमिक भी मिलना चाहिए.

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तुमने फ़िराक को देखा था

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आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमसरो
उनको जब ये मालूम होगा तुमने फ़िराक को देखा था

फ़िराक द्वारा खुद के बारे में कही गयी ये पंक्तियाँ कितनी बेलौस और बेबाकी से कही गयी लगती हैं.

यह भी एक अजीब इत्तिफाक है कि जो दिन ऊपरवाले ने मुक़र्रर किया हिंदी-उर्दू की अजीम शख्सियत को अपने पास बुलाने के लिए,उसी दिन मशहूर हास्य अभिनेता केश्टो मुखर्जी और बदनाम डाकू छविराम को भी अपने दरबार में बुलाया.जाहिरा तौर पर तीनों में कोई संबंध नहीं है.एक रुबाइयों की नाजुक भीनी बदली में लिपटी रूह है,दूसरी कहकहों की आवाज का लिबास पहने है तो तीसरी यमदूतों की बराबरी करने वाला काली लिबास में मुंह छिपाए है.

क्या कहकहों,डकैती और अपराधों में और नाजुक ख्याली में कोई भीतरी संबंध है? संबंध तो है.क्योंकि ये तीन रंग आत्मा के हैं.जुंग कहता है कि जो असत् है वह चार चेहरों वाला है और जो सत् है उसके तीन चेहरे हैं.असत् हरदम इस कोशिश में रहता है कि उसे सत् समझा जाये.इसके लिए वह अपना एक चेहरा छुपा लेता है.

वह चौथा चेहरा उस साधारण आदमी का हो सकता है जिसमें इन तीनों के गुण नहीं,मगर जिसमें ये तीनों रहते हैं.कोमल अहसास बन कर,हंसी बन कर और भय बन कर.उस गली-मुहल्ले के आदमी को भी इन विशिष्ट लोगों के साथ अपनी वादी में वहीँ जगह देकर मौत जिंदगी की उस तस्वीर को पूरा कर देती है,जिसे खुद जिंदगी पूरा नहीं कर पाती.ये चारों कभी इकट्ठे नहीं हो सकते.और इकट्ठे न होंगे तो जिंदगी के टुकड़े कहलाएंगे,जिंदगी नहीं.

फ़िराक भी जिंदगी का एक ऐसा ही टुकड़ा था जो जिंदगी न हो पाया.फ़िराक कभी जिंदगी जी न सका........

उम्र फ़िराक ने यूँ ही बसर की
कुछ गमें दौरा कुछ गमें जाना

अनुभूतियाँ कुछ इतनी तेज मिली थीं कि अक्सर शामो-सुबह के रंग,फूलों की खुशबू या तो इंतहा गम जगा देते थे या इंतहा ख़ुशी इतनी कि,जिंदगी बर्दाश्त के बाहर हो जाती थी.खुद फ़िराक ने अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहा है कि मामूली-मामूली बातें जो औरों के लिए कोई मायने नहीं रखतीं उसके मासूम बचपन पर ही भारी होने लगी थीं.

कविता की देवियों ने बचपन में ही उसके दिल की खिड़की पर अपनी भोली सूरतें दिखाना शुरू कर दिया था,इस तरह कि कुमार रघुपति ठगा सा रह जाता था.अक्सर अपने को औरों से अलग देखकर उसका दिल होता,कहीं छुप जाऊं.उसे इतनी शर्म घेरे रखती कि,खुद उसके शब्दों में,’एक झाड़ू की तरह’ वह सबकी नज़रों से छुपकर ही घर में जीना चाहता था.

मगर जिंदगी अपनी छेड़खानियों से कहाँ बाज आती है.जिसे उसकी अनुभूतियाँ,तीखे दर्द,अनोखी चाहें खुद अपने से,अजनबी बनाए दे रहे थे.उसे शब्दों ने एक सुंदर मूर्ति की शक्ल में ढाल दिया.जिसने भी सुना बोला,यह कौन है,यह कौन है? मीर के बाद रेखती ने यह कैसा सिंगार किया है.ये गंधर्व बालाएं कब से उर्दू बोलने लगीं? ये कालिदास की यक्षणियां कैसे अपने यक्षों को ढूंढने आ गयीं.

दूर-दूर से लोग मिलने आने लगे,कोई फ़िल्मी दुनियां से कोई पत्रिकाओं से,कोई विद्वता की धूल से उठकर,कोई दिल के शोरों से घबराकर.मगर इनमें वह अभिन्नता कहाँ थी जो उस ‘लज्जित झाड़ू’ को सहारा देती.वे तो एक जीनियस से मिलने आते थे जैसे लोग अजायबघर में जाते हैं अजीब चीजें देखने.और इतने मिलने वालों की भीड़ के बीच भी अकेली रह गयी जो,वह फ़िराक की आत्मा तड़पकर बोली एक दिन.....

‘मिल आओ फ़िराक से भी एक दिन
वह शख्स एक अजीब आदमी है'

निजी जिंदगी से न कुछ लिया न कुछ दिया.जो पत्नी मिली उसके लिए खुद फ़िराक के शब्दों में,’पाव भर सत्तू खाकर एक कोने में लिपटे रहना ही स्वर्ग था.’जीवन के दुर्लभ सौन्दर्य की न उसे अनुभूति थी न आवश्यकता.उसने नारी की न जाने कैसी मूरत फ़िराक की निजी जिन्दगी में रख दी कि उम्र भर नारी ने फिर कभी आकर्षित नहीं किया.नारी का सौंदर्य,कोमलता,मातृत्व और मधुर अनुभूतियों से महकता रूप उसकी कल्पना में हमेशा खिला रहा.......

लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीजाए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप ये लोच ये तरन्नुम ये निखार
बच्चा सोते में मुस्काए जैसे 

काश कि फ़िराक ने उस साधारण गली-कूचे के आदमी की सूरत से अपनी सूरत मिलाई होती.शायद तब उसे उसकी सत्तू खाकर ऊंघने वाली,संवेदनाहीन के दिल में छुपे उस खजाने का पता चलता जो फ़िराक की तरह बहुमूल्य तो न था,मगर इतना मूल्यवान जरूर था कि उसके अभाव में फ़िराक की अपनी जिंदगी रुक गयी,ठिठक गयी,घुट गयी.वह उन अनुभूतियों को न जी सका जो नारी ने छेड़-छेड़कर उसकी कल्पना में भर दी.

फ़िराक मीर की तरह खुद नारी से प्रेम की वह जिन्दगी न जी सका,जिसके बिना उसका निजी जीवन बिना बदली का सावन बन गया.मगर उसकी संवेदना मुखर थी.जो औरों ने जिया उसे संवेदना के जरिये खुद अपने पर गुजरे जैसा महसूस करने की शक्ति उसे प्रकृति ने दी थी.

अंग्रेजी कवि यीट्स ने कहा भी है : ‘जो जिन्दगी को भुगतता है और जो उसे महसूस कर चित्रित करता है दरअसल दो अलग-अलग हस्तियाँ हैं.’ 

फ़िराक इन दोनों हस्तियों में दूसरी तरह की हस्ती बन गया.निजी जिंदगी के आँगन पर ज्यों-ज्यों साए लंबे होते गए जीने की अबूझ ललक ने सारी धूप जिंदगी के घर के आगे फैली दूर-दूर तक जाती सड़क पर ले ली.सड़क गुलजार थी,रोज नये-नये चेहरे थे.फ़िराक के घर में रौशनी न सही इनके चेहरों पर तो जिंदगी की धूप थी.दीवानों के लिए इतना ही काफी था......

घर छोड़े हुओं को कोई मंजिल न सही
होती नही सहल कोई मुश्किल न सही
हस्ती की एक रात काट देने को
वीराना सही तेरी महफ़िल न सही 

यह भी एक अजीब इत्तिफाक था या फिर इसके पीछे भी प्रकृति की किसी बज्मे अदब का बुलावा होगा कि फ़िराक की मौत से एक हफ्ते पहले उसका सबसे अजीम दोस्त ‘जोश’ मलीहाबादी चल बसा.इस जोश ने उसे बहुत दुःख दिया था-एक बार बदगुमा होकर और दूसरी बार पाकिस्तान जाकर.मगर इस तरह चले जाने कहीं बंधन टूटते हैं दिल के.

तीसरी बार जब जोश इस दुनियां को भी अलविदा कह गया तो फ़िराक चुप था.एक लंबी बीमारी में दरो-दीवार देखते-देखते आँखें पथरा चुकी थीं.एक झोंक आयी तबियत में और चादर जिस्म पर डाल वह हजारों को रौनक देने वाला सौंदर्य का मासूम बेटा,अपनी मां के पवित्र सौंदर्य को देखता-देखता चला गया.........

‘अहले रिंदा की वो महफ़िलें सबूत हैं इसका फ़िराक
कि बिखर कर भी यह शीराजां परेशां न हुआ' 

वियोग को फ़िराक ने उपहार बना दिया.’कफस की तीलियों से छनता नूर’ इस कदर खूबसूरत है कि वस्ल की चमक फीकी लगती है.फ़िराक ने प्रेम के विनाश को सुंदर बनाया है.उसकी यह चेष्टा कहीं-कहीं जादुई भव्यता की और ले गयी है,उस सीमा तक जहां से काव्य सौन्दर्य को खुद अपना पता नहीं रहता.......

मौत रात एक गीत गाती थी
जिंदगी झूम-झूम जाती थी 

कौन सा वह आश्वासन था जो प्रकृति ने दिल ही दिल में उसे दे दिया था.कौन सा वह अमृत था जो निराशा और एकाकीपन में बिखरकर भी उसकी जिंदगी का शीराजां कभी परेशां न हुआ.हर रोज केशों की तरह दुःख के बादलों को झटककर उसकी जिंदगी का चाँद चमक आता था और लंबे-चौड़े नभ पर अपनी अनंत यात्रा को ही मंजिल मान चलता रहा......

‘एक लिली की तरह खिली काई भरे
पत्थर के किनारे किसी
एक तारे की तरह सुंदर सरल जो
अकेला था आसमान पर’

‘विलियम वर्ड्सवर्थ’की ये पंक्तियाँ फ़िराक को बहुत प्रिय थीं.क्या कोई छिपा हुआ संदेश था कि मौत के बाद उसकी समाधि पर उसके लिए ही ये दो पंक्तियाँ लिख दी जाएं?

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तिब्बती साहित्य की रहस्यमयी लेखिकाएं

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अलेक्जेंड्रा डेविड नील
तिब्बत आज भी रहस्यमय और अलौकिक विद्याओं का केंद्र माना जाता है.भारतीय योगी भी अपनी साधना के लिए हिमालय के दुर्गम और सामान्य मनुष्य की पहुंच के बाहर वाले क्षेत्रों को ही चुनते हैं.भारत और विशेषकर तिब्बत के प्रति विदेशियों की भी शुरू से ही रूचि रही है.दो महिला लेखकों ने तिब्बती साहित्य में अमूल्य योगदान दिया है.

अलेक्जेंड्रा डेविड नील सत्रह वर्षों तक तिब्बत में रही और इस अवधि में वे अनेक लामाओं,सिद्धों और तिब्बती तांत्रिकों से मिली.वे स्वयं भी अनेक विद्याओं में पारंगत हो गयीं और फलतः तिब्बतियों ने उन्हें ‘लामा’ की उपाधि से अलंकृत किया.अलेक्जेंड्रा मूलतः बेल्जियन,फ्रेंच महिला थीं,उनकी ख्याति 1924 में तिब्बती राजधानी ल्हासा के भ्रमण को लेकर भी है,जब ल्हासा पूरी दुनियां से अनजान था.

अलेक्जेंड्रा ने 30 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं,जिनमें यात्रा,आध्यात्मिक अनुभव,दर्शन आदि से सम्बंधित हैं.उन्होंने दो बार भारत की यात्रा की,1890-91 और पुनः 1911 में,बौद्ध साहित्य के अध्ययन के लिए.उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में ‘विसडम फ्रॉम दि फॉरबिडन जर्नी’, 'इमोरटेलिटी एंड रिनकार्नेशन'और  ‘मैजिक एंड मिस्ट्री इन तिब्बत’ प्रमुख हैं.

उन्होंने अंतिम समय तक अपने सचिव सिक्किम के युवा भिक्षु योंगडेन,जिन्हें उन्होंने बाद में गोद ले लिया था, के साथ तिब्बत की कई रहस्मयी यात्राएं कीं और अंतिम समय तक लेखन कार्य करती रहीं.101 वर्ष की उम्र में फ़्रांस में 1969 में उनका निधन हुआ और उनके नाम पर पेरिस के उप शहर मैसी में एक सड़क का नामकरण किया गया ‘अलेक्जेंड्रा डेविड नील’. उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनकी और योंगडेन के अंतिम अवशेष को आपस में मिलकर 1973 में बनारस में गंगा में प्रवाहित किया गया.

मैसी में अलेक्जेंड्रा के नाम की सड़क 
अलेक्जेंड्रा ने अपने अनेक पुस्तकों के माध्यम से पश्चिमी जगत को तिब्बत की समृद्ध अलौकिक परंपराओं से परिचित कराया.लामा अलेक्जेंड्रा डेविड नील का कहना है कि उन्होंने अपनी आँखों से अनेक तिब्बती तांत्रिकों को आकाश में उड़ते और पानी पर चलते देखा है.अनेक योगी कड़ाके की ठंढ में भी विवस्त्रावस्था में साधना रत रहते हैं.

अलेक्जेंड्रा की तरह ही एक और यूरोपीय महिला हैं - एलिस ए. बेली.उन्होंने भी तिब्बत की रहस्यमय विद्याओं पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं.बेली कभी भी तिब्बत नहीं गयीं,न उन्होंने तिब्बती विद्याओं के संबंध में कुछ पढ़ा,लेकिन तिब्बत विषयक उनकी पुस्तकें प्रामाणिक मानी जाती हैं.

बेली ने इसका स्पष्टीकरण दिया है.उनका कहना है कि तिब्बत के एक तांत्रिक लामा ‘खुल’ की आत्मा ने ही उनसे ये पुस्तकें लिखवायी हैं.इस संबंध में वे एक रोमांचक घटना का विवरण देती हैं.

एलिस ए. बेली
बेली का कहना है कि,एक दिन वे अकेले पहाड़ी रास्ते पर चली जा रही थी.सहसा उनके कानों में किसी के गीत के स्वर सुनाई दिए.फिर शून्य से आवाज आई.’मनुष्य जाति के कल्याण के लिए एक पुस्तक लिखना अत्यंत आवश्यक है,और यह कार्य आप बखूबी कर सकती हैं.’

बेली भय से सिहर उठीं.उन्होंने घबराकर चारों ओर देखा.उन्हें पुनः सुनायी दिया,घबराओ नहीं.यह कार्य तुम सफलतापूर्वक कर सकती हो.तीन सप्ताह का समय देता हूँ.सोच विचार कर यहीं उत्तर देना.तीन सप्ताह तक बेली ऊहापोह में पड़ी रही.अंत में उन्होंने अदृश्य शक्ति का आदेश मानने का निर्णय कर लिया.

तीन सप्ताह बाद वह उसी स्थान पर गयीं और अद्रश्य व्यक्ति द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने उसके कहे अनुसार पुस्तक लिखने की तत्परता दर्शायी.

बाद में बेली को पता चला कि उस अदृश्य व्यक्ति का नाम खुल है.यह तिब्बती तांत्रिक बेली के मस्तिष्क में विचार पहुंचाता रहा और वह उन्हें लिखती जातीं.बेली के अनुसार तिब्बती तांत्रिक खुल की आत्मा परोपकार की भावना से कार्य करने वाले डाक्टरों,हकीमों और वैद्यों की सहायता करती है.वह उन्हें रोगी के स्वास्थ्य लाभ के लिए उपाय भी बताती हैं.

तिब्बती तांत्रिक खुल के निर्देशों के अनुसार एलिस ए. बेली ने पांच खंडोंवाली एक वृहद् पुस्तक लिखी.इस पुस्तक में रोगों की चिकित्सा के रूहानी उपाय बताये गए हैं.लेकिन हर व्यक्ति इन उपायों को नहीं समझ सकता.बेली का कहना है कि 1919 से 1949 तक लामा खुल की आत्मा विभिन्न लोगों का मार्गदर्शन करती रहीं.आज उनके ये शिष्य प्रचार से दूर रहकर परोपकार के कार्य में लगे हुए हैं.

Keywords खोजशब्द :- Alexandra David Neel,Alice A. Belly,Tibbetan Spiritual Writers

ओऽम नमः सिद्धम

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ग्रामीण अंचलों में बोलचाल में प्रयुक्त ‘ओनामासीधं’ शब्द दरअसल संस्कृत भाषा के प्राचीनतम वैयाकरण महर्षि शाकटायन के व्याकरण का प्रथमसूत्र-‘ओऽम नमः सिद्धम’ है.पहले बच्चों का विद्यारंभ कराते समय सबसे पहले इसी सूत्र की शिक्षा दी जाती थी.इसके बाद ही वर्णमाला का नंबर आता था.

प्रारंभिक शिक्षा का आदिसूत्र होने के कारण कालांतर में यह शब्द विद्यारंभ का पर्यायवाची बन गया और अपभ्रष्ट रूप में लोग इसे ‘ओनामासी’ कहने लगे.कालांतर में इसका प्रयोग व्यंग्यार्थ में होने लगा.जो बच्चे किसी भी कारण से न पढ़ पाते,वे कहने लगते-ओनामासीधं.

वैसे इस सूत्र –‘ॐ नमः सिद्धम’ का भावार्थ स्पष्ट है कि ‘जिसने योग या तप के द्वारा अलौकिक सिद्धि प्राप्त कर ली है,या जो बात तर्क और प्रमाण के द्वारा सिद्ध हो चुकी है,उसे नमस्कार.’

भारतीय भाषाओँ में वर्णमाला चूंकि वेद-सम्मत तथा स्वयंसिद्ध मानी जाती है,अतः कहा जा सकता है कि ‘सिद्धम्’ प्रयोग उसी के निमित्त किया गया है.कुछ लोग इसका संबंध गणेश,वाग्देवी तथा जैन तीर्थंकर महावीर से भी जोड़ते हैं.

‘पाटी’ शब्द किसी विषय की विधिवत शिक्षा या पाठ के अनुक्रम के अर्थ में प्रयुक्त होता है.इसका निकटतम पर्याय ‘परिपाटी’ माना जा सकता है.ज्योतिर्विद एवं गणितज्ञ भास्कराचार्य ने अपने ग्रंथ ‘लीलावती’ को ‘पाटीगणित’ के ही रूप में संबोधित किया है.स्पष्ट है कि पाटी शब्द भाषा और गणित के प्रारंभिक पाठों के लिए प्रयुक्त होता था.यह धारणा प्रचलित है कि बच्चों से ‘पाटियाँ’ लकड़ी के तख्तों पर ही लिखवायी जाती थी,इसलिए ये तख्तियां ही पाटी बन गयीं.

पाटी का संबंध मात्र भाषा ज्ञान से है,संख्या में केवल चार हैं.इसलिए ‘चारों पाटी’ शब्द प्रचलन में आया.पहले पाटियां पढ़ाई जाती थीं,लेकिन ब्रिटिश शासन में उनकी शिक्षा पद्धति के साथ इन पाटियों की पढ़ाई बंद हो गयी.इनको पढ़ाने वाले सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में रह गए.

संस्कृत के विद्वान,विशेषकर पाणिनीय व्याकरण के अध्येता,तो पहले ही इन पाटियों से नफरत करते थे,अन्य शिक्षित वर्ग भी इनसे परहेज करने लगा.इसका कारण था कि यह इतना कठिन था कि इनकी पढ़ाई का औचित्य ही समझ में नहीं आता था.अब ये सिर्फ बुंदेलखंड के ही कुछ क्षेत्रों में सीमित होकर रह गयी हैं.

हालांकि ये पाटियां निरर्थक-सी प्रतीत होते हुए भी निरर्थक नहीं हैं.इनके तात्पर्य और भावार्थ का कुछ-कुछ अनुमान ‘कातंत्र व्याकरण’ से लगाया जा सकता है.’कातंत्र व्याकरण,व्याकरण के ‘पाणिनि संप्रदाय’ से भिन्न है और शर्ववर्मा की रचना कहा जाता है.कातंत्र व्याकरण के पहले चारों पाद इन चारों पाटियों से काफी मेल खाते हैं.

पाटियों के साथ ‘लेखे’ और ‘चरनाइके’ भी पढ़ाये जाते रहे हैं.इनका प्रचार किसी न किसी रूप में आज भी है.ये हैं-गिनती,पहाड़े,पौआ,अद्धा,पौना,सवैया,ढैया,हूंठा,ढौंचा,पौंचा,कौंचा,बड़ा इकन्ना,विकट पहाड़ा और ड्योढ़ा.कौंचा का प्रचार अब नहीं रहने के कारण इसे हटाकर कुल तेरह ही लेखे हैं.चरनाइके वस्तुतः नीति और शिष्टाचार सम्बन्धी वाक्य होते हैं.इनके द्वारा आचार-विचार की शिक्षा दी जाती है.मान्यता है कि इनकी रचना चाणक्य सूत्रों के आधार पर हुई है.

पाटियों को हाथ पर ताल देकर गा-गाकर पढ़ाया जाता था.प्रत्येक सूत्र के प्रथम अक्षर पर ताल देते हुए दो तालों के मध्य लगभग आठ मात्रा का अंतर रखा जाता था.ताल के बाद प्रत्येक पांचवीं मात्र पर दायीं हथेली ऊपर की और करके खाली प्रदर्शित की जाती थी.पाटी पढ़ने में संगीत के ‘कहरवा’ ताल का उपयोग किया जाता था.किसी कठिन तथा नीरस विषय को बच्चों को याद कराने का यह सर्वोत्तम तरीका था.दक्षिण भारत की संगीत शिक्षा में इस तरह का प्रयोग आज भी देखा जा सकता है.

शंका के जीवाणु

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हम सब अक्सर एक साथ कई शौक पालते रहते हैं.और समय-समय पर इन शौकों को पुष्पित-पल्लवित भी करते हैं.लेकिन शौक के कारण मुसीबत को गले लगाने का वाकया कम ही होता है.पहले मैं हस्तरेखा विज्ञान या पामिस्ट्री में विश्वास नहीं रखता था.लेकिन एक घटना ने मेरी राय बदल दी.

वह सत्र की शुरुआत के दिन थे.कई प्रकाशकों के विक्रय प्रतिनिधि नमूने की प्रति लेकर शिक्षकों के पास पहुँच रहे थे.इसी क्रम में एक दुबला-पतला,लहीम-शहीम सा एक विक्रय प्रतिनिधि मुझसे टकरा गया.उसने पुस्तक की प्रति देते हुए मुझे मेमो जांच लेने के लिए कहा.मैं मेज पर हाथ रखकर मेमो में लिखी इबारत को पढ़ रहा था तो उसने एक अजीब सा प्रश्न किया- ‘क्या आप हस्तरेखा विज्ञान में विश्वास रखते हैं?’ मैंने कहा- मुझे तो इन सब पर विश्वास नहीं है. उसने एक सुझाव देते हुए कहा- कल आप वाहन का प्रयोग न करें तो बेहतर.अभी जब आप मेज पर हाथ रख मेमो पढ़ रहे थे तो आपकी हथेली पर मेरी नजर गई,इसी वजह से मैं कह सकता हूँ कि कल अत्यधिक सावधानी बरतें.  

मुझे उसकी बातों पर न तो विश्वास हुआ और और न ही कोई सावधानी रखी.अन्य दिनों की तरह मोटर साइकिल से घर वापस आते हुए कब ध्यान भंग हुआ और प्रमुख चौराहे पर दो बकरी के बच्चे आपस में सींगें लड़ाते हुए अचानक से सड़क के बीच आ गए.जोर से ब्रेक लेने के बाद भी मामूली टक्कर हो ही गयी और सड़क पर गिर पड़ा.हेलमेट की वजह से कोई चोट तो नहीं लगी लेकिन दोनों घुटने छिल गए थे.घर में आराम करते वक्त मुझे अनायास ही उस व्यक्ति की याद हो आई जिसने एक दिन पहले इस दुर्घटना की और इशारा किया था.

यहीं से मुझे हस्तरेखा विज्ञान में रूचि जगी और कई वर्षों के अध्ययन के पश्चात मैं यदा-कदा अपने सहयोगियों और करीबी लोगों का हाथ देख कर सटीक जानकारी दे पाने में सक्षम हो गया था.विभिन्न पत्रिकाओं में इस संबंध में मेरे कुछ लेख भी छपे थे.शायद इसी वजह से इटली के खूबसूरत शहर मिलान में हस्तरेखा विज्ञान पर होने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार में भाग लेने के लिए तीस सदस्यीय भारतीय प्रतिनिधिमंडल में मुझे भी शामिल कर लिया गया था.

मिलान में दो दिवसीय सेमिनार समाप्त हो चुका था और अगले दो दिन बाद हमें वापस भारत लौटना था.दो दिनों का हमारा व्यस्त कार्यक्रम था,शहर के महत्वपूर्ण स्थलों के भ्रमण का.पहले दिन भ्रमण के पश्चात सभी लौट चुके थे.मैं रात के खाने के बाद थोड़ी चहलकदमी करते हुए होटल के बाहर आ गया था.तभी सामने से आते हुए एक लम्बे कद के व्यक्ति ने मुझे रोका था,वह शायद मेरी और ही आ रहा था.आप शायद भारत से हैं और सेमिनार में शिरकत करने आए हैं.उसने मेरे बारे में काफी जानकारी जुटा रखी थी.क्या आप मेरे साथ चलकर एक व्यक्ति की हस्तरेखा पढ़ सकेंगे? मैं थोड़ा असमंजस में था.रात के दस बज रहे थे और पता नहीं कितनी देर लग जाय.उसने मेरी मनोदशा पढ़ ली थी,कहा,शीघ्र ही आप वापस लौट जाएंगे.

एक पुराने से मोटर कार से हम गंतव्य की ओर चले.मिलान शहर के चर्च को पार करने के कुछ देर के बाद ही कार एक कच्ची सड़क पर हिचकोले ले रही थी.मैंने घड़ी में देखा-दस बजकर पैंतीस मिनट हो चुके थे.तभी कार एक पुराने से दरवाजे पर रुकी.उसके साथ सीढ़ियों चढ़ते एक अंधेरे कमरे में पहुंच गया था.उसने एक कुर्सी की और बैठने का इशारा करते हुए लाईट जला दी.कमरे में चारों ओर निगाह दौड़ाई तो चीख निकलते-निकलते रह गई.पलंग के सामने एक युवती की लाश पड़ी थी.शक्लोसूरत से कोई भारतीय ही लग रही थी.

मारे भय के संज्ञाशून्य हो चला था.तभी उस व्यक्ति से सर्द स्वर में कहा,मैं चाहता हूँ कि आप इन हाथों की रेखाएं पढ़ें.मैंने कई साथियों,परिचितों के हाथ की रेखाएं पढ़ी थीं,लेकिन इतनी भयानक स्थिति में कभी नहीं.मैं अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था.मुझे क्या अधिकार था कि उस युवती के हाथ की रेखाओं को पढूं जिसके होठ हमेशा के लिए चुप हो चुके हैं. अतीत की बातों को परतों के नीचे दबे रहना ही ठीक होता है.

मैं इस निश्चय पर पहुंचा ही था कि किसी ठंढे निःश्वास ने मुझे स्पर्श किया.यह कोरी कल्पना थी या वास्तविकता,कह नहीं सकता.मगर मैंने सोचा और महसूस भी किया कि कोई चीज मेरे कानों में फुसफुसा रही है,संकोच न करो.हाथ की रेखाएं पढ़ो और जो सच है,वह बता दो.

सी क्षण में अपनी सारी संकल्पनाशक्ति गंवा बैठा.मानो मैं किसी अदृश्य शक्ति के नियंत्रण में था.मैंने अपने को पलंग की और खींचता महसूस किया और सिहरकर देखा कि मैंने झुककर उन मृत हाथों को बड़ी मृदुता से अपने हाथों में ले लिया है.

मुझे ज्यादा रौशनी मिल सके इसलिए उस व्यक्ति ने एक और लैंप जलाया,चूंकि कमरे में कोई मेज नहीं थी इसलिए उसने पलंग के पायताने रखे ताबूत को खींच लिया और जब उसने लैंप को उस पर रखा तो मैंने ताबूत पर लिखी इबारत पढ़ी : जूलिया विंगेट,उम्र 25 वर्ष.

उम्र : 25 वर्ष, फिर भी उसकी हस्तरेखाएं परेशानी और चिंता की सूचना दे रही थी.मगर विवाह रेखाएं इसका प्रतिकार करते हुए कह रही थीं कि उसे अपने पति से बेहद प्यार था.जैसे-जैसे में उसके हाथ को पढ़ता गया,उस व्यक्ति के मुखड़े पर अंकित वेदना और भी तीव्र और गहरी होती गयी.उस औरत के जीवन का कोई राज था,जिसे उसने चुपचाप संजो रखा था.यह स्नेह किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति था,जिसे वह पैसों से सहायता और सहारा देती आयी थी.मुझे विश्वास है कि वह उसका कोई रिश्तेदार था.

वह व्यक्ति इस तरह कराहा जैसे उसके सीने में चाकू घोंप दिया गया हो और वह कुर्सी में बेहोश होकर ढह गया.मृत हथेलियों को छोड़कर मैं उसकी ओर लपका.तबतक वह होश में आ गया था.वह याद करने की कोशिश कर रहा था कि मैं यहाँ क्यों था.जब उसे याद आया तो मेरी बांह पकड़ते हुए कमरे के बाहर ले गया और कहा,श्रीमान, अब आप जाइए,किसी रोज मैं आपको सभी बातें अच्छी तरह समझा सकूंगा.

किसी तरह वहां से निकलकर मुख्य सड़क पर आया और टैक्सी लेकर अपने होटल पहुंचा.इस क्रम में दो घंटे व्यतीत हो चुके थे.मेरे रूम मेट काफी घबराए हुए थे कि मैं अचानक कहाँ गायब हो गया था.अजीब सी स्थिति थी कि किसी को कुछ बता भी नहीं सकता था.

एक साल गुजर गए थे. उस वाकये के बाद मैंने लोगों के हाथ की रेखाएं पढ़नी बंद कर दी थी.जब भी किसी व्यक्ति का हाथ देखता,वही मृत हाथ सामने आ जाती और मेरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती थी.मैंने यह राज अपने सीने में दफ़न कर रखा था.

एक प्रकाशक के आमंत्रण पर मैं दिल्ली गया था.नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास ही पहाड़गंज के एक होटल में ठहरा था.होटल से निकलकर प्रकाशक से मिलने जाने ही वाला था कि एक व्यक्ति ने मुझे रोकते हुए कहा,सर एक व्यक्ति आपसे मिलना चाहते हैं,पास ही एक होटल में रुके हैं.उस व्यक्ति के साथ होटल के कमरे में पहुंचा तो एक व्यक्ति को प्रतीक्षारत पाया,जो हड्डियों का ढांचा मात्र लग रहा था.उसने उठकर हाथ मिलाने की कोशिश की,पर मैं उसे पहचान नहीं पाया.जब उसने यहां बुलाने के लिए माफ़ी मांगी तो आवाज कुछ पहचानी सी लगी.फिर वह सब याद आ गया जब मिलान में एक मृत युवती के हाथ की रेखाएं देखने गया था.

मैंने आपके घर फोन कर आपके बारे में पता किया था कि आप यहां पर हैं.मेरे पास बैठ जाइए,मेरी आवाज में दम नहीं है.फिर खांसी का दौरा रुकते ही उसने कहा,क्या पिछले साल की मिलान की एक रात की याद है आपको,जब आपने मेरी खातिर हस्तरेखाएं पढ़ीं थीं?

मेरे सर हिलाते ही उसने अपनी बात कहनी शुरू की.वह युवती मेरी पत्नी थी.भारत में ही पुरी के जगन्नाथ मंदिर में उससे मिला था.वह टूरिस्ट गाइड का काम करती थी और मैं भारत भ्रमण के आया था.यहीं उससे मित्रता हो गयी थी. मुझे अक्सर लगता था कि उसके जीवन में कोई है,जिसे वह मुझे छिपाकर  रखना चाहती थी.मैंने इस बारे में संकेत किया तो उसने कहा,यदि आप चाहते हैं कि हमारी मित्रता बनी रहे तो इस बारे में कुछ न पूछें.

छह महीने बाद ही उससे विवाह कर उसे मिलान ले गया था.परिवार में उसके अलावा कोई नहीं था.तीन वर्ष हमने मिलान में सुखपूर्वक गुजारे.न उसने कभी मुझे मेरे अतीत के बारे में पूछा,और न मैंने उसके अतीत के बारे में जानने की कोशिश की.

एक रोज भारत से उसके नाम से एक पत्र आया.मैं वह पत्र उसके पास ले गया और पूछा,क्या तुम्हारे भारत में और भी दोस्त हैं,तुमने तो कभी नहीं बताया.वह चौंकी और उसकी आँखों में आंसू छलछला आये.वह अपने कमरे में चली गयी.अगर मैं उसके पीछे-पीछे गया होता और उसका विश्वास जीतने की कोशिश की होती,तो सबकुछ ठीक हो जाता.मगर लगता है उसी एक क्षण में मेरा अहं जग गया था और ईर्ष्या मेरे दिल पर हावी हो गयी थी.

कई दिनों तक मैं अपनी पत्नी से दूर रहा और अपनी ईर्ष्या को सहलाता रहा.अंत में मैंने एक योजना बनाई और प्रतिशोध की बात सोची.मैंने सोचा उससे सच कबूल करवाकर ही रहूंगा.मैंने उस पर नजर रखना शुरू कर दिया और उसकी हर हरकत पर मेरी निगाह रहती.मैंने डाकिये को मिलाकर उसकी डाक पढ़नी शुरू कर दी.रात को चुपचाप उठकर मैं उसके कमरे में चला जाता और उसपर नजर रखता.

एक रात दबे पांव उसके कमरे में पहुंचा तो उसे एक चिट्ठी लिखते हुए पाया.मैं चुपचाप उसके पीछे खड़े रहकर उसकी चिट्ठी को पढ़ने की कोशिश की,मेरे प्रिय,तुम जानते हो कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूं और तुमसे दूर रहकर भी तुम्हारे भविष्य की चिंता मुझे सताती रहती है.मुझे उस दिन की प्रतीक्षा है जब हम तुम फिर मिलेंगे.मैं कुछ पैसे भेज रही हूँ,इसका सदुपयोग करना.’

इसके आगे मैं पढ़ नहीं पाया.मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया था.मैं ईर्ष्या से पागल हो रहा था.उसी क्षण मैंने फैसला कर लिया कि अपनी जिंदगी का अंत कर लूंगा और उसे स्वतंत्र कर दूंगा ताकि वह भारत जाकर उस आदमी से शादी कर ले,जिसे उससे प्यार है.

मैंने अपनी वसीयत लिखी और सबकुछ उसके नाम कर दिया,मैं नहीं चाहता था कि मेरे मरने के बाद उसे कोई तकलीफ हो.मेरे लिखने के दौरान ही जूलिया के आने की पदचाप सुनायी दी.मैंने झट से तकिये के नीचे वसीयत को छुपाया,जब उसने कमरे में आकर कहा,मेरे सर में बहुत दर्द हो रहा है,जरा दवाई की शीशी देना.मैंने दवा की आलमारी से एक छोटी शीशी उठाकर उसे दी और मुंह फेर लिया.आहिस्ते से वह दरवाजे की और बढ़ी और हमारी नजरें मिली.गुडनाईट कहते हुए वह अपने कमरे की और बढ़ी और कुछ परेशान और विचलित होकर मैंने आखिरी चिट्ठी लिखनी शुरू की.

कई बार लिखा और फाड़ डाला क्योंकि जो लिखा वह जंचता ही नहीं था,सुबह होने को था और मेरा पत्र पूरा नहीं हुआ था.फिर मैंने सोचा,ज्यादा लिखना क्या,चंद लाइनें ही काफी हैं.फिर मैंने लिखा-अलविदा ! जूलिया.मुझे सब पता लग गया है.अब तुम स्वतंत्र हो.सुखी रहो- जॉन विंगेट.

मैंने पत्र लिफाफे में रखा और चुपचाप उसके कमरे में पहुंचकर देखा कि रौशनी की रेखाएं उसके तकिये पर पसर रही थीं.अपने आंसू पोछकर मैं आखिरी चुंबन के लिए झुका.उसके होंठ बर्फ की तरह ठंढे थे.’हे भगवान ! माजरा क्या है?मैंने उसे जल्दी से उठाकर गले लगाया.अंत में एक ठंडी अंगुली ने मेरे दिमाग में यह ख्याल पैदा किया कि वह मर चुकी थी.इतना कहकर वह शख्स निढाल पड़ गया.थोड़ी देर आराम करने के बाद वह पुनः बोला,’आप आसानी से समझ सकते हैं कि क्या हुआ होगा?उस रात उत्तेजित अवस्था में मुझे यह कतई ध्यान नहीं रहा कि मैंने उसे दर्द की दवाई वाली शीशी की जगह जहर वाली शीशी थमा दी थी जो मैंने अपने खात्मे के लिए रखा था.

आपने उस रात बताया था कि कोई शख्स था जिसे वह प्यार करती थी.वह उसका रिश्तेदार था,उस पर बोझ था और उसी ने उसका जीवन बर्बाद किया था.आपकी बात सच निकली.वह व्यक्ति जिसे उसने पैसे भेजे थे,उसका सगा भाई था और बेरोजगार था.मैं अबतक केवल इसलिए जीवित रहा कि उस व्यक्ति के बारे में अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति कर सकूं.मैं एक महीने पहले भारत आया और पुरी होते हुए यहां पहुंचा.मैंने सारी धन-संपत्ति उसके नाम कर दिया है.अब वापस अपने वतन लौटने की सोच रहा हूँ ताकि शांति से मर सकूं.सिर्फ आपसे मिलने की आस बाकी थी,वह भी पूरी हो गई.इतना कहकर वह बिस्तर पर गिर पड़ा.

मैंने सांत्वना भरे हाथ उसके माथे पर रखा और अपने कार्य के लिए निकल पड़ा.दो दिन बाद ही उसके होटल के एक स्टाफ ने मुझे खबर दी कि विंगेट इस दुनियां में नहीं रहा.जब उसका शव कब्रिस्तान रवाना हुआ तो उसकी शवयात्रा में शामिल होने वाला एक मात्र व्यक्ति मैं ही था.

एक छोटी सी गलतफहमी या मन में पल रहे शंका के जीवाणु से घर-परिवार के बिखराव की अनेकों कहानियां पढ़ी थीं,और कई हिंदी फिल्मों में भी देखा था,लेकिन प्रत्यक्ष रूप से शंका और संदेह के कारण विंगेट दंपत्ति को अपनी आँखों के सामने मौत के आगोश में सोते हुए पाया.

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तुलसीदास की प्रथम कृति - रामलला नहछू

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तुलसीदास कृत रामचरित मानस की आभा में उनकी अन्य कृतियां दब सी गयी मालूम पड़ती हैं.गोस्वामी तुलसीदास की प्रथम रचना ‘रामलला नहछू’ मानी जाती है.इस लघु कृति के बीस सोहर छंदों में नहछू लोकाचार का वर्णन हुआ है.’सोहर’ अवध क्षेत्र का प्रख्यात छंद है,जो मुख्तया बच्चे के जन्म पर गाया जाता है,हालांकि यह अन्य क्षेर्त्रों में भी समान रूप से प्रचलित है.इसके अतिरिक्त यह कर्णवेध,मुंडन और उपनयन संस्कारों तथा नहछू लोकाचारों पर स्त्रियाँ इसे गाती हैं.

तुलसीदास ने जीवन में शास्त्रसम्मत विधानों के साथ लोकाचार के परिपालन का भी महत्त्व निरूपित किया है.......

लोक वेद मंजुल दुइ कूला

वेदाचार लिखित नियमों की भांति ग्रंथबद्ध और व्यापक हैं,लेकिन लोकाचार परंपराओं पर आधारित होता है.नहछू लोकाचार का शास्त्रीय विधान न होते हुए भी अवध में कम से कम पांच सौ वर्षों से व्यापक रूप से प्रचलित है.

नहछू दो शब्दों से बना है-नख और क्षुर.नहछू की रस्म में नायिता ससुराल जाने के लिए सजते समय दुल्हे के पैर से नख,नहनी से काटती है,इसके उपरांत उसके पांवों में महावर लगाती है.दूल्हा सजाने का आमंत्रण पाते ही पास-पड़ोस की स्त्रियां रस्म पूर्वक गालियों की बौछार करती हैं.मां के लिए अश्लील गालियां गाये जाने पर दूल्हे को लज्जा और संकोच की विचित्र प्रथमानुभूति होती है, जो थोड़ी ही देर में विनोद के ठहाकों में घुल जाती हैं.

लोकगीतों में रामकथा सहस्त्रमुखी धाराओं में प्रवाहित हुई है.समाज के हर वर्ग ने उसे अपनी मान्यताओं के अनुकूल गढ़ा है,अपनी भावनाओं के रंग में रंगा है.गोस्वामी तुलसीदास की काव्य प्रतिभा ने नहछू लोकाचार का अत्यंत सजीव वर्णन किया है-राजा दशरथ के आँगन में कच्चे बांस का मंडप छाया गया है.मणियों,मोतियों की झालर लगी है.चारों और कनक-स्तंभ हैं,जिनके मध्य राजसिंहासन है.गजमुक्ता,हीरे और मणियों से चौक पूरी गयी है.

भागीरथी जल से राम को स्नान कराया गया है.युवतियों ने मांगलिक गीत गाये.राम सिंहासन पर विराजमान हैं.हाथ में नवनीत लिए अहीरिन खड़ी है,तांबूल लेकर तम्बोलिन,जमा जोड़ा लिए दरजिन,कनक रत्न मणिजटित मयूर लिए मालिन आ पहुंची है.बड़ी आँखों वाली नायिता भौंह नचाते हुए भाग-दौड़ कर रही है.सारी तैयारी हो जाने पर कौशल्या की ज्येष्ठ,कुल की पुरखिन उन्हें आज्ञा देती है-जाओ सिंहासन पर बैठे रामलला का नहछू करा दो.

मां कौशल्या रामलला को गोद में लिए बैठी है.दूल्हा राम के सिर पर उनका आंचल छत्र की भांति सुशोभित है.नहछू के लिए नायिता को पुकारा जाता है.बनी-ठनी,हंसती-मुस्कुराती नायिता कनकलसित नहनी हाथ में लिए खड़ी दुल्हे राम की शोभा निहार रही है.अब बड़भागी नायिता राम के पांवों के नख काटने लगी है.बीच-बीच में वह मुस्कुराते हुए तिरछे नयनों से उन्हें निहारते भी जाती है.नहछू शुरू होते ही उपस्थित युवतियां सोहर गाने लगती हैं.सबसे पहले कौशल्या की खबर ली जाती है,फिर सुमित्रा की......

काहे राम जिउ सांवर लछिमन गोर हो
की दहु रानी कौउसिलहीं परिगा भोर हो |
राम अहहिं दशरथ के लछिमन आनि क हो
भरत सत्रुहन भई सिरी रघुनाथ क हो ||

(एक ही पिता के पुत्र होकर राम सांवले क्यों हैं और लक्ष्मण गोरे क्यों हैं?कहीं दशरथ के धोखे में कौशल्या से चूक तो नहीं हो गयी? अरे नहीं-नहीं ! राम तो दशरथ के ही पुत्र हैं.लक्ष्मण संभव है – दूसरे के पुत्र हों ! भरत और शत्रुघ्न भी राम के भ्राता हैं.)

अगले छंद में उपस्थित मां के प्रति सोहर सुनकर रामलला के सकुचाने का मनोवैज्ञानिक चित्र है..........

गावहिं सब रनिवास देहिं प्रभु गारी हो
रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो |

नख काटने के बाद नायिता ने राम के पैरों की अँगुलियों को जावक से चर्चित कर सूख जाने पर उन्हें पोंछ दिया.नहछू संपन्न हो जाने पर नेग की बारी आयी.कवि ने इस अवसर पर नेग की प्रचुरता और विपुलता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है.अंत के दो छंद में मां कौशल्या की प्रसन्नता और कृति की फलश्रुति का वर्णन हुआ है.

रामलला नहछू में रचना-काल का वर्णन नहीं है.’गोसाईं चरित’ में लिखा है कि ‘पार्वती मंगल और ‘रामलला नहछू’ की रचना एक साथ मिथिला में हुई.पार्वती मंगल में रचना-काल का वर्णन किया गया है.....

जय संवत् फागुन सुदि पांचै गुरु दिन |
अस्विनी विरचेऊँ मंगल सुनि सुख छिन-छिन ||

विशेषज्ञ ‘पार्वती मंगल’ का रचना काल 1582 मानते हैं और गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 माना जाता है.स्पष्ट है कि ‘रामलला नहछू’ कवि के तारूण्य का उद्गीत है,जिसमें एक ओर अवस्थानुरूप सुलभ श्रृंगारप्रियता है और दूसरी ओर उनकी प्रकृति के अनुरूप मर्यदावादिता का गंगा-जमुनी संगम है.नव-युवतियों के कोमल सौंदर्य में जो अभिरूचि कवि ने इस कृति में दिखलायी है,वह उनकी अन्य कृतियों में दुर्लभ है.

‘रामलला नहछू’ के लघुकाय होने के कारण रचनाकार को यद्यपि यह सुविधा नहीं थी कि ‘रामचरित मानस’ की भांति बीच-बीच में पाठकों को स्मरण कराते कि राम सच्चिदानंद ब्रह्म हैं,फिर भी इस लोक गीत में वे अपने उपास्य की लोकोत्तर महिमा का बोध कराना नहीं भूलते हैं........

जो पग नाउनि धोव राम धोवावइं हो |
सो पगधूरि सिद्ध मुनि दरसन पावइं हो ||
रामलला कर नहछू इहि सुख गाइय हो |
जेहि गाए सिधि होइ परम पद पाइय हो ||

रामलला नहछू की भाषा अवधी है,'रामचरित मानस'की भांति साहित्यिक अवधी या 'विनय पत्रिका'की भांति संस्कृतनिष्ठ अवधी नहीं,बल्कि 'पद्मावत'की भांति ठेठ ग्रामीण पूर्वी अवधी जो गोंडा और अयोध्या के आसपास बोली जाती है. 

परंपराएं आज भी जीवित हैं

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रोना मनुष्य को प्रकृति की ओर से मिला एक जन्मजात तोहफ़ा है,क्योंकि इस दुनियां में प्रवेश करते ही मनुष्य का पहला काम होता है रोना.शिशु का क्रंदन सुनकर ही जच्चाखाने के बाहर प्रतीक्षारत सगे-संबंधी समझते हैं कि बच्चा इस दुनियां में आ गया.उसके बाद आदमी न जाने कितनी बार रोता है पूरी जिंदगी में,और अंततः जाते हुए खुद तो नहीं रोता किंतु अपने शुभचिंतकों को रुलाकर चल देता है.मिथिला की बेटी जब विवाह के बाद ससुराल जाने के लिए माता-पिता,सगे-संबंधियों,समाज एवं गांववालों से विदा लेते हुए रोती है,तो वह दृश्य दुनियां का सबसे मार्मिक और दर्दनाक दृश्य होता है.

कहा जाता है कि परंपराएं गतिशील होती हैं.समय के अंतराल में इनमें परिवर्तन अवश्य आती हैं.विख्यात समाजशास्त्री डॉ. योगेंद्र सिंह ने इस पर किताब भी लिखी है - भारतीय परंपरा का आधुनिकीकरण. किंतु कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं.इनमें आधुनिकता का कोई समावेश नहीं दिखता.

हिंदुस्तान के सभी समाजों में जब बेटी पहली बार अपने मायके को अलविदा कहते हुए ससुराल में अपनी दुनियां बसाने को मायके की देहरी लांघती है तो टूटते ह्रदय के भाव आंसू बनकर आँखों से टपकने ही लगते हैं और माहौल बहुत गमगीन हो जाता है,लेकिन मिथिला की बेटी की विदाई के वक्त यह गम अपनी चरमावस्था में होता है.यह बात अलग है कि शहरों की अधिकांश बेटियों ने विदाई के वक्त ब्यूटीशियन की मदद से तैयार किया गए महंगे मेकअप के बिगड़ जाने के दर से आंसू बहाना बंद कर दिया है और ख़ुशी-ख़ुशी कार में बैठकर समझदारी और आधुनिकता का परिचय देना आरंभ कर दिया है,किंतु मिथिला की बेटियां अभी भी इस प्रभाव से पूरी तरह अछूती हैं.

दरअसल मिथिला की बेटी जब विदाई के वक्त रोना प्रारंभ करती है तो वह अकेले नहीं रोती बल्कि उस मौके पर उपस्थित तमाम लोग रोने लगते हैं.उपस्थित सारी महिलाएं तो जोर-जोर से इस कदर रोने लगती हैं कि मानो उसके ह्रदय के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हों और उनका सब-कुछ लुटा जा रहा हो. पिता,भाई,चाचा एवं अन्य उपस्थित व्यक्ति तो जोर-जोर से नहीं रोते,किंतु वे सिसकते,हिचकियां लेते और बार-बार आंखें पोंछते अवश्य नजर आते हैं.सबों को रोते देखकर छोटे-छोटे बच्चे भी जोर-जोर से रोने लगते हैं,चाहे उन्हें दर्द का अहसास हो न हो.

यहाँ तक कि दहेज़ के नाम पर बेटी के बाप से खून तक चूस लेने वाले निष्ठुर दूल्हे भी इस अवसर पर आंखें पोंछते नजर आते हैं और कभी-कभी तो दूल्हे के मन में यह भाव भी उत्पन्न हो जाता है कि वह अपनी दुल्हन को अपने साथ ले जाकर उसके मायके वालों को इस तरह का असहनीय कष्ट क्यों दे रहा है.ऐसे में दूल्हा कभी-कभी सबों की मार्मिक व्यथा का जिम्मेवार खुद को मानने लगता है.बेटी को विदा करने पास-पड़ोस एवं टोले के सारे लोग पहुँच जाते हैं और आशीर्वाद के साथ-साथ आंसू की सौगात भी देते हैं.ऐसा लगता है मानो घर-द्वार,पेड़-पौधे,जानवर आदि भी रो रहे हैं,बेटी को विदा करते वक्त.

विदाई के क्षण के पास आते ही बेटी जब रोना शुरू कर देती है तो फिर उस करूण क्रंदन का कोई ओर-छोर नहीं होता है.सबों से गले मिलकर रोती है और जोर-जोर से पुकारकर कहती है कि उसने कौन सा अपराध किया है जो उसे सबों से दूर भेजा जा रहा है.भावविह्वल होकर वह पूछती है कि उसे कहाँ भेजा जा रहा है,जिसका जवाब हर कोई सिर्फ रोकर आंसुओं से देता है.

साथ रोती महिलाएं सामूहिक रुदन के साथ धीरे-धीरे बेटी को संभालते हुए उस सवारी के पास लाती हैं,जिस सवारी पर बैठकर उसे ससुराल जाना होता है,तो यह दृश्य क्लाइमेक्स पर जा पहुंचता है.बेटी गाड़ी पर चढ़ना नहीं चाहती है और रिश्तेदार महिलाएं उसे समझा-बुझाकर गाड़ी पर चढ़ाने का प्रयास करती रहती हैं.बेटी इस कदर कतराती है मानो वह गाड़ी नहीं फांसी का फंदा हो.काफी समय लग जाता है बेटी को गाड़ी में बिठाने में.तीन बार गाड़ी को आगे-पीछे किया जाता है,फिर बेदर्दी ड्राइवर एक्सीलेटर पर पांव का दवाब बढ़ा देता है.

सारे परिजन रोते-बिलखते रह जाते हैं और गाड़ी रोते-रोते बेसुध होती बेटी को को लेकर आगे बढ़ जाती है.लेकिन तब भी बेटी का रोना नहीं थमता है.गाड़ी बढ़ती रहती है और बेटी का विलाप जारी रहता है. धीरे-धीरे गाड़ी गांव की सीमा से बहुत दूर निकल जाती है तब भी बेटी का रोना जारी रहता है.तब साथ में चलने वाले लोग उसे चुप कराने लगते हैं कि अधिक रोने से कहीं उसकी तबियत न बिगड़ जाए.यहां भी उसे चुप कराना आसान नहीं होता .सबों के समझाने बुझाने से वह चिल्लाकर रोना तो बंद कर देती है किंतु लंबी हिचकियों का सैलाब थमता नहीं है.तेज सवारी हो तो 20-25 किलोमीटर निकल जाते हैं हिचकियों के थमने में.

मिथिलांचल में बेटियों के इस कदर भाव विह्वल होकर रोने की परंपरा बहुत ही पुरानी है,संभवतः उतनी ही पुरानी जितनी पुरानी मिथिला है.मिथिला नरेश राजा जनक की पुत्री सीता की मर्यादापुरुषोत्तम राम के साथ विदाई के दृश्यों का वर्णन करता एक गीत है ..........

‘बड़ रे जतन से सिया जी के पोसलों,
सेहो सिया राम लेने जाय’

यह गीत न जाने कबसे मिथिलांचल में बेटी की विदाई का सबसे चर्चित और पारंपरिक गीत बना हुआ है.इसमें कोई संदेह नहीं कि इस गीत की धुन दुनियांभर के बेहतरीन मार्मिक धुनों में से एक है.बिछोह से उपजे इस तरह के गीतों की धुन को मिथिलांचल के लोगों ने एक अलग ही नाम दे दिया है - ‘समदाउन’.

'समदाउन'के तहत कई तरह के गीत इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं कि मिथिला के गीतकारों-संगीतकारों ने भी बड़ी गहराई से बेटी की विदाई की मार्मिकता को महसूस किया है.वस्तुतः यह मिथिलांचल के वासियों की भावुकता और अत्यधिक संवेदनशीलता का प्रमाण है जिसकी चरम प्रस्तुति बेटी की विदाई के वक्त होती है.

इससे यह कल्पना की जा सकती है कि विदाई के औपचारिक दृश्यों में भी जब जब मिथिलावासी रोने लगते हैं तो दिल के टुकड़े से विदाई के वक्त वे कितना आंसू बहाते होंगे. कभी-कभी तो इस तरह के दृश्यों की तस्वीरें उतारने वाला फ़ोटोग्राफ़र भी तस्वीरें उतारते-उतारते खुद भी तस्वीर का एक हिस्सा बन जाता है और हिचकियां लेने लगता है.वस्तुतः ये आंसू दर्द के पिघलने से उत्पन्न होते हैं.एक सवाल यह भी उठता है कि मिथिला की बेटियों का ही दर्द इतना गहरा क्यों है.

मिथिलांचल में प्रारंभ से ही बच्चों के विवाह में दूरी को नजरंदाज किया जाता रहा है.लोग अपनी बेटियों की शादी दूर-दूर के गांवों में करते रहे हैं,अच्छे घर एवं वर की तलाश में.तब न तो अच्छी सड़कें थी और न तेज सवारियां.पहले तो डोली और कहार ही थे.डोली कहार के बाद बैलगाड़ी पर चढ़कर दुल्हन ससुराल जाने लगी,फिर ट्रैक्टर का युग आया,और अब जीप-कार चलन में है.

यह भी कटु सत्य है कि अब भी मिथिलांचल की करीब पंद्रह प्रतिशत दुल्हनें बैलगाड़ी पर चढ़कर ही नवजीवन की राह पर बढ़ती हैं.इनमें अधिकांश निर्धन परिवारों की दुल्हनें ही होती हैं. इस वजह से मायके से ससुराल की थोड़ी दूरी भी अधिक प्रतीत होती हैं.अगर अपनी सवारी नहीं है तो अधिकांश गांवों में पहुंचना एक कठिन समस्या बन जाती है.पुरुष तो पांच-सात किलोमीटर पैदल या साइकिल पर भी चढ़कर चले जाते हैं लेकिन महिला क्या करे? ऐसे में उन्हें मायके से पूरी तरह कटकर जीवन गुजारने की कल्पना भयभीत कर देती है,खासकर जब-तब ससुराल वालों की निर्दयता और निर्ममता के किस्से अक्सर सुनने को मिलते हों.

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि मिथिलांचल में विदाई के वक्त बेटी का रुदन एक कला भी है.बेटी के ससुराल चले जाने के बाद पास-पड़ोस की महिलाएं उसके रुदन की समीक्षा करती हैं.जो नवविवाहिता बहुत ही मार्मिक ढंग से रोती हैं एवं अधिक लोगों को रुलाकर चली जाती है उसे लोग बरसों याद रखते हैं और बातचीत के दौरान उसके रुदन को उदहारण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.इसके विपरीत जो ढंग से रो भी नहीं पाती उसका उपहास भी बाद में किया जाता है.

इतना ही नहीं मार्मिक ढंग से न रो पाना मिथिलांचल की महिलाओं के व्यक्तित्व का एक निगेटिव पॉइंट भी माना जाता है क्योंकि बेटियों के रोने का कार्य विदाई में ही समाप्त नहीं हो जाता.विदाई के बाद पहली बार अपने गांव लौटती हुई महिला भी अपने गाँव की सीमा रेखा के अंदर प्रवेश करते ही जोर-जोर से रोना प्रारंभ कर देती है.दूर से किसी  महिला के रोने की आवाज सुनकर ही गाँव के लोग उत्सुक निगाहों से देखने लगते हैं कि किसकी बेटी आ रही है.

पुनः ससुराल जाते वक्त भी बेटी रोती है.फिर माता-पिता की मौत पर भी बेटियां रोती हैं.इसलिए विदाई से पहले बेटी रोने का पूर्वाभ्यास कर लेती हैं.पहले तो बेटियों को विदाई से एक महीने पूर्व से ही रुलाया जाता था,लेकिन अब यह अवधि काफी सिमट गई है.

विदाई के एक दिन पहले जब दूल्हा अपने सगे-संबंधियों के साथ दुल्हन की विदाई करने पहुँचता है तब बेटी को रुलाया जाता है.कई मामले ऐसे भी निकल जाते हैं कि बेटी महीने भर से रोने का पूर्वाभ्यास करती रही और और विदाई करवाने दूल्हा ही नहीं पहुंच पाया.इसलिए एक महीने पहले से ही बेटी को रुलाने की परंपरा समाप्त हो गयी.

जिन समाजों में शादी के तुरंत बाद बेटी की विदाई की जाती है,उनमें बेटियों को रोने के पूर्वाभ्यास का अवसर नहीं मिलता,लेकिन अधिकांश समाजों में बेटी विवाह के दो साल-पांच साल बाद द्विरागमन में ही पहली बार ससुराल जाती है.लेकिन खूबी यही है कि मिथिलांचल के सभी समाजों में बेटियों का रुदन एक समान होता है.

Keywords खोजशब्द :-Bidai,Samdaun,Customs of Mithila

मी कांता बाई देशमुख आहे

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अहले सुबह सोकर उठा ही था कि मोबाईल की घंटी बजनी शुरू हो गई.फोन उठाया ही था कि मेरी आवाज सुने बिना ही उधर से आवाज आने लगी,’मी कांता बाई आहे.....’.मराठी में करीब तीन-चार मिनट की शिकायत भरे लहजे से आभास हुआ कि कोई कांता बाई देशमुख बोल रही थी और कह रही थी कि वह आज काम पर नहीं आएगी.लगा मोबाईल के क्रॉस कनेक्शन का मामला है.जिसके लिए फोन किया था,पता नहीं उस पर क्या बीती होगी.

साल में एक-दो बार मुंबई आने-जाने के क्रम में मराठी की दो-चार बातें भी समझ में आने लगी हैं.मुंबई फोन लगाओ तो व्यस्त टोन के साथ मराठी में रिकार्डेड पंक्तियाँ चलने लगती हैं.थक हारकर एक दिन उन पंक्तियों का मतलब भी कस्टमर केयर से पूछ लिया था.

लेकिन यहाँ तो मोबाईल के क्रॉस कनेक्सन का मामला था.हममें से अधिकतर को मोबाईल के क्रॉस कनेक्शन का सामना करना पड़ता है.न चाहते हुए भी दूसरों की बातें सुननी पड़ जाती हैं.जेहन में कल्पित व्यक्ति का अक्स उभरने लगता है.कल्पना के घोड़े तो यूँ ही बेलगाम दौड़ते रहते हैं.उस पर रोक कहाँ संभव है?

कुछ साल पहले जब मोबाईल का नया नया कनेक्शन लिया था तब भी क्रॉस 
कनेक्शन आते थे.एक बार किसी ने फोन कर रहा कि लालू जी से बात करवाइए न! शायद पूर्व मुख्यमंत्री लालू जी के पी.ए. का क्रॉस कनेक्सन लग गया था.कई दिनों तक सोचता रहा कि आखिर हममें समानता क्या है?.मेरा उनकी पार्टी से दूर दूर तक नाता नहीं रहा है.

कुछ साल पहले खबर आई थी कि कर्नाटक के रायचूर जिले के वीरेश का फोन क्रॉस कनेक्शन के चक्कर में तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खारसे जा लगा था.अब वीरेश ने मोहतरमा से क्या बातें की होंगी.दो-चार इश्को-मोहब्बत की बातें तो आजकल इन मौकों पर हो ही जाती हैं. बन्दे ने यह तो न पूछा होगा कि आप कौन सी कंपनी का बैग इस्तेमाल करती हैं,या कितने हजार डॉलर में टोरंटो या मनीला से खरीदीं.यह भी न पूछा होगा कि आप कौन सा परफ्यूम इस्तेमाल करती हैं.

जाहिर है ऐसे मौकों का इस्तेमाल करना यहाँ के युवक बखूबी जानते हैं.शान में वो सब कशीदे पढ़ने लगते हैं कि शीरी-फरहाद भी बगलें झाँकने लगें. नाहक ही आईबी और आई.एस.आई वाले पीछे पड़ गए.


वैसे हिना रब्बानी जब भारत आईं थीं तब मीडिया वाले भी इसी तरह पीछे पड़े थे.उनके चेहरे और बैग पर ही ज्यादा फोकस रहता था.टी.वी. एंकर घंटों इस बात को दिखाते रहे थे कि उनका बैग किस कंपनी का है, कौन सा परफ्यूम इस्तेमाल करती हैं,वगैरावगैरा.

क्रॉस कनेक्शन आजकल आम बात हो गई है.इसकी वजह से ही कई जोड़ियाँ बन गईं.कई लोगों की जिंदगियां बदल गई हैं,कईयों को तो लाईफ पार्टनर तक मिल गए हैं.एक बार क्रॉस कनेक्शन होते ही सीधे कनेक्शन का सिलसिला चल पड़ता है.साथ-साथ जीने मरने की कसमें खाई जाने लगती हैं,बंदा एक नए ताजमहल के सृजन का सपना देखने लगता है और मुग़ल बादशाह को कोसने से बाज नहीं आता………

किसी शहंशाह ने बनाकर खूबसूरत ताजमहल
हम ग़रीबों के मुहब्बत का मजाक उड़ाया है


लेकिन यह नामुराद क्रॉस कनेक्शन भी तो सबके भाग्य में नहीं लिखा होता.हमें तो ईर्ष्या हो रही है वीरेश से.काश ! अपना ही क्रॉस कनेक्शन लग जाता हिना रब्बानी जी से तो दिल का हाल खोल कर रख पाते या नहीं,नहीं मालूम. अक्सर ऐसे मौकों पर अपनी आवाज दगा दे जाती है और मन की बात मन में ही रह जाती है.

अब तो यही ख़यालात दिल को बेचैन कर देता है कि………

अपने मन को जाहिर करने का
दुनियां में बहुत बहाना
किन्तु किसी में माहिर होना
हाय! न मैंने अब तक जाना
जब-जब मेरे उर में सुर में
द्वन्द हुआ है,मैंने देखा
उर विजयी होता,
सुर के सिर हार मढ़ी ही रह जाती है’.

(हरिवंश राय बच्चन की कविता से साभार)

Keywords खोजशब्द :- Mobile,Cross-Connection,Humor

जाते हुए वसंत का बौरायापन

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वसंत तो हर साल इतराता,इठलाता हुआ आता है.पर कभी जाते हुए वसंत का बौरायापन देखा है.हालांकि पिछले कई साल से पेड़,पौधों की जड़ों की बात तो दूर,ठीक-ठाक उनके शरीर पर भी पानी नहीं बरसा है,फिर भी यह जा रहा है.हर साल की अपेक्षा इस साल इसके ठाठ कुछ कम ही रहे हैं.शायद सूखे के कारण ऐसा हो.

वैसे वसंत बड़ा मनमौजी होता है.यह सबके पास नहीं आता,सब पर नहीं आता.कई पेड़ तो वसंत में फूलों से लदे-फदे दिखते हैं और कई टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं.वसंत सर्र से आता है और फर्र से चला जाता है.कई पेड़ तो आने की खबर मात्र से ही इतराने लगते हैं.गली,घाट,चौराहों पर पत्ते उतार कर ठूंठ बनकर प्रतीक्षा करते रहते हैं.उनकी शाखें और टहनियां लचकदार हो जाती हैं.

वसंत उन्हें देखकर मुस्कुराता है और उनकी ओर एक-एक मुठ्ठी फूल फेंक देता है.आम सरीखे कुछ वृक्ष अवश्य हैं,जो पत्तों सहित स्वाभिमान पूर्वक अमराई में डटे रहते हैं.वे अपनी हरीतिमा में और सघन हो उठते हैं.वसंत उनकी फुनगियों से फूटकर स्वयं गौरव पाता है.अधिकांश पेड़ों की तरफ वसंत ताकता भी नहीं.इतना अवश्य है कि वसंत आने के पूर्व पतझड़ इनके पीले पत्तों को तोड़ डालता है.

वसंत का आगमन कौन अपने जीवन में नहीं चाहता.सारी वनस्पति सहज भाव से मुस्कुराना चाहती है.फूलों की कलगी धरकर पेड़-पौधे नाचना चाहते हैं.चीथड़ों को उतारकर वासंती-वसन पहनना चाहते हैं.आखों में कलियों का जागरण चाहते हैं.साँसों में सुमनों की महक चाहते हैं.शिशिर की जकड़न से निजात पाकर,अंग-अंग में वसंत की ताजगी चाहते हैं.गति में ठुमक और वाणी में खनक चाहते हैं. दूसरे मौसमों की सूद दर सूद चली आती मार से छुटकारा चाहते हैं.पत्थरों की संधि में फंसी अपनी जड़ों में गीलापन चाहते हैं.लाल मिटटी वाली धरती पर सदानीरा पहाड़ी नदी चाहते हैं.अपनी वानस्पतिक गंध से वसंत को मौलिक सहजता देना चाहते हैं.

परंतु दुनियां में सबको मनचाही स्थिति नहीं मिलती.कोई चांदी का चम्मच लेकर पैदा होता है तो कोई दोनों हाथ खोले खड़ा रहता है,रात-दिन हड्डी-पसली एक करता रहता है फिर भी मुठ्ठी भर वसंत नहीं मिलता.कुछ पौधे ख़ास जरूर होते हैं जो क्यारी के गुलाब बनकर फलते-फूलते रहते हैं.बाकी तो सब पलाश हैं.ज्यादातर वृक्षों को सख्त पत्थर,सूखी मिट्टी,नुकीले कंकड़ और रेतीली ढलान वाली जमीन ही मिलती है.वर्षा उन्हें नहला जाती हैं और गर्मी सुखा जाती है.

कुछ पेड़ वसंत के पहले ही कट जाते हैं.लोहे के कल-पुर्जों पर लदे-फ़दे गायब हो जाते हैं.कुछ लोगों के अलावों में जलकर उनकी जकड़न दूर करते हैं,उनका जाड़ा भगाते हैं.यह बात अलग है कि अपने ही खलिहानों या दलानों के के पेड़ काटने के लिए वन विभाग के कर्मचारियों की जेब गर्म करनी पड़ती है,तभी आप उस लकड़ी से गर्मी महसूस कर सकते हैं.

कुछ अलाव की आंच में आँखों की कोर के टूटते तटों को देखते हैं और धू-धूकर जलते हैं.खुद जलकर लोगों के भीतर की आग सोख लेते हैं.कुछ अपनी आग से दूसरों के भीतर भी आग पैदा कर देते हैं.कुछ को जीवन में वसंत आने के पहले ही दूसरी जगह बसाने,रोपने के आश्वासन के साथ उजाड़ दिया जाता है.कभी बांध बहाना लेकर,कभी उद्योग लगाने का तर्क देकर आदिम वनों की बस्तियों के भूगोल से निकाल दिया जाता है.ये पुराने अरण्य वसंत को बिना देखे ही चुपचाप मिट जाते हैं.

कई बार तो इतनी तेज आंधियां चलती हैं कि छोटे-छोटे नये किशोर पौधे उखड़ जाते हैं.डालियाँ टूट जाती हैं,तने ठूंठ हो जाते हैं.कोयल,मोर पपीहा तोता कटे पंख,घायल शरीर लिए सकते में आ जाते हैं.दूर- दूर तक बूढ़े झाड़-झंखाड़ दिखते हैं.तब फिर वसंत मुआयना करने निकलता है.बूढ़ा वृक्ष हाथ जोड़े खड़ा रहता है.वसंत उन अनुभवी बूढ़े वृक्षों को आस बंधाता है,हम तुम्हारी नयी फसल उगाएंगे.नयी फसल उगाने और ठूंठ बने शेष पेड़ों की देखरेख का जिम्मा ‘ग्रीष्म’ को सौंप कर वसंत ओझल हो जाता है.विवश किंतु पानीदार आंखें उड़ती धूल देखती रह जाती हैं.

वसंत की एक खासियत और भी है.यह कभी-कभी सहयोगी नायक बनकर प्रकृति के रंगमंच पर आता है.यह उसकी बड़ी खतरनाक किस्म की भूमिका होती है.कामदेव इसे सखा के रूप में पाकर धनी हो जाता है.वसंत कामदेव को कुसुम बाण सप्लाई करता है और मदन है कि उसका दुरूपयोग करता रहता है. आम्र,अशोक,अरविंद,नीलोत्पल और नवमल्लिका के पंचबाणों से लैस होकर ऐंठा-ऐंठा घूमता रहता है.विवश,परित्यक्त और विरही जनों को व्यग्र करने में ही अपनी क्षमताओं की इतिश्री समझता है.

‘कुमारसंभवम्’ में इंद्र से कामदेव बड़े गुमान से कहता है :

तव प्रसादात् कुसुमायुधो पि, सहायमेकं मधुमेव लब्ध्या
कुयौ हरस्यापि पिनाकपाणेः धैर्यच्युतिं के ममःधन्विनो न्ये |

(आपकी कृपा से कुसुमायुच्छ होने पर भी एक मात्र वसंत को पाकर पिनाक पाणि शिव के भी धैर्य को च्युत कर दूं)

शिव की छेड़खानी वसंत को लेकर कामदेव कर रहा है.परिणामतः कामदेव को भस्म होना पड़ा.कामदेव के अंत के साथ ही वसंत की छवि भी धूमिल हो गयी.कहने को तो वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में हर छोटा-बड़ा पौधा लालयित रहता है.दस महीनों में दूसरी ऋतुओं का बखेड़ा इसलिए सहते हैं कि वसंत के आने पर कुछ दिन तो फूल खिलेंगे.साँसों की गंध,सुगंध बनेगी.मौन टूटेगा,आखों के तट सूखेंगे,उषा अंगड़ाई लेगी और निराला की चिर-परिचित आकाश में उंची उठी.......

‘रूखी री यह डाल,वसन वासंती लेगी’

पर जाते-जाते वसंत के बौराएपन का क्या कहिए कि जाते हुए भी शरीर में सिहरन और ठिठुरन दिये जा रहा है.

Keywords खोजशब्द : Farewell to Spring,Madness of spring

सीनोरिटा बड़े बड़े लोगों में...

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इधर हाल में मल्लिका मैम की फिल्म फिर से देखने को मिली.पिछले कई सालों से बॉलीवुड से गायब थीं.हॉलीवुड में काम के नाम पर अमेरिका में इधर-उधर घूमने के बाद दुबारा जब से फिल्मों में सक्रिय हुई तो  फिर से वही पुराना रोल. उस तरह के रोल करने वालों की अब एक नई पौध तैयार हो गई है इमरान हाशमी अब नई अभिनेत्रियों के साथ व्यस्त हो गए हैं.ले देकर अब ओमपुरी ही बचे हैं.

हिंदी फिल्मों का एक ट्रेंड बड़ा पुराना है.अभिनेता तो चिर जवां रहता है और 50-55 की उम्र होने पर भी फिल्मों में कॉलेज जाते हुए और रोमांस करते दिखता है जबकि अभिनेत्रियों को 30-35 पर पहुँचते ही चरित्र अभिनेत्रियों के रोल ऑफर होने लगते हैं.

कुछ साल पहले मल्लिका मैम(अरे! वही,अपनी मल्लिका सहरावत) ने बड़ा शिगूफ़ा छेड़ा था और किससिखाने का स्कूल खोलने वाली थी. बड़े जोर शोर से इसका प्रचार भी किया था.पता नहीं सीखने वाले नहीं मिले या इरादा बदल गया.भावी अभिनेता,अभिनेताओं को भी प्रशिक्षण मिल जाता तो अच्छा रहता ताकि फिल्मों में असहज महसूस नहीं करते.

वैसे ‘किस’ करने के मामले में भारतीय बड़े असहज महसूस करते हैं.इस तरह किस करते हैं,मानो सामने वाले को स्वाइन फ़्लू हो.इस संबंध में बराक ओबामा साहब से टिप्स लेना चाहिए था जो उस दिन हिंदी में कुछ बोलते बोलते रुक गए थे. शायद वे  कहना कहते थे सीनोरिटा बड़े बड़े लोगों मेंकिस करने का अंदाज अलग होता है.ओबामा साहब भी किस के मामले में बड़े एक्सपर्ट हैं.इस तरह किस करते हैं मानो सामने वाले को सूंघ रहे हों कि कोई बीमारी-विमारी तो नहीं है.यकीं न हो टी.वी. देख लें.

मल्लिका जी का स्कूल चल जाता तो यह भी सीखने को मिलता कि किस-किस को किस करना है और कैसे करना है.चीन में किस के बहाने होठों के काट खाने की घटना हो चुकी है.सो इस विद्या का सोच समझ कर और देख- भाल कर प्रयोग किया जाना आवश्यक है.

कॉलेज के दिनों में तो हमने भी खूब फ्लाईंग किस के अभ्यास किये थे.हालत यह हो गई थी कि साँस लेने पर गले से सीटी की आवाज आती थी. पर होनी को कौन टाल सकता है.गलती से एक दिन फ्लाईंग किस अपनी सहपाठी की जगह मिस्ड कॉल की तरह साइकोलॉजी की मैडम घोष को जा लगी.उन्होंने बांग्ला मिश्रित हिन्दी में वो लंतरानियाँ भेजी कि वो दिन और आज का दिन, फिर कभी हथेली का धूल झाड़ने के लिए भी फूंक नहीं मारी.

वैसे इस ‘किस’ स्कूल से भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा लाभ होने वाला था.टूथपेस्ट बनाने वालों की बिक्री बढ़ जाती.दन्त चिकित्सकों की गाड़ी दौड़ने लगती.आखिर सुन्दर मोतियों से दांत का सवाल है.

अपना देश वैसे भी पान,गुटखा,किस्म-किस्म के पान मसालों, तम्बाकू,बीड़ी,सिगरेट आदि के लिए कुख्यात है. ‘किसस्कूल चालू हो जाता तो ये सब खुद ब खुद बंद हो जाते. स्वास्थ्य विभाग को गुटखा,पान-मसालों,सिगरेट के पैकेटों पर भूत प्रेत के चित्र लगाने से छुटकारा मिल जाता.किस स्कूल के फायदे ही फायदे हैं.

मल्लिका मैम तो वैसे भी आजकल फ्री हैं.हॉलीवुड-बॉलीवुड का चक्कर छोड़कर यदि फिर से इसी में ध्यान लगाएं तो कुछ ही दिनों में फ़ोर्ब्स की सूची में अपना नाम लिखवा सकती हैं.अपनी भी यही इच्छा है कि इस स्कूल से प्रशिक्षण ले लें तो क्या पता एक और भींगे होठ तेरेका सृजन हो जाये.

सो अब तो सोते जागते सिर्फ यही गुनगुनाने का का मन करता है कि…….

हम भी हैं,तुम भी हो
दोनों हैं आमने सामने
किस तरह किसदें
कि बदल जाएं प्यार के मायने.

Keywords खोजशब्द :- Art of Kiss,Kiss School,Humor

शब्दों की तलवार

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आप बोलचाल में अक्सर किस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं? अगर आप कम बोलते हैं तो नपा-तुला बोलते हैं.यदि आप बातूनी हैं तो शब्दों की तलवार भी चलाते रहते हैं.दरअसल बोलचाल में प्रयुक्त किये  जाने वाले शब्द आपके व्यक्तित्व को भी उजागर करते हैं.विभिन्न क्षेत्रों में बोलचाल का लहजा भी भिन्न-भिन्न होता है.

कई लोग शब्दों की तलवार चलाने में बड़े माहिर समझे जाते हैं.बात-बात में ही ऐसी बात कह देते हैं कि आप मन मसोसकर रह जाते हैं.उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पर क्या बीत रही होती है.कहते भी न हैं कि उनकी जुबान कैंची की तरह चलती है.

कन्फ्यूशियस इस नतीजे पर पहुंचा है कि जो शब्दों की तलवार चलाने की आदत से लाचार हैं,उन्हें उसके घावों को सहने की क्षमता भी प्राप्त कर लेनी चाहिए,क्योंकि अक्सर उस तलवार से उनका ही अंगच्छेद होता है.अपनी ही शेखी से चोट खाए इंसान मूर्खतावश इन चोटों के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है.

श्रीमद्भागवत में इस प्रकार के व्यवहार पर प्रश्न है......

जिह्वां क्रचित्
संदशति स्वदविद्भः
तद्वेद्नाया कत
माय कुप्यते |

(अपने ही दांतों से अक्सर अपनी जीभ के काट लेने पर जो पीड़ा होती है,उसके लिए काटनेवाला आखिर किस पर क्रोध करेगा)

सत्ता का नशा जब सर पर चढ़कर बोलने लगता है तो शब्दों की तलवार अक्सर चलते देखे जाते हैं.राजनीतिज्ञ शब्दों की तलवार चलाने में बड़े माहिर होते हैं. हम प्रायः ही राजनीतिज्ञों को शब्दों की तलवार चलाते देखते सुनते रहते हैं- जब कोई राजनीतिज्ञ शब्दों की तलवार चलाते हुए कहता है कि हम केंद्र को घुटने टेकने पर मजबूर कर देंगे.

कवि फिरदौसी ने बड़े व्यंग्य से ऐसे लोगों के लिए लिखा है कि तलवारें म्यान से बाहर निकालना तो अनाड़ियों के लिए भी आसान है,किन्तु उन्हें शत्रु की गर्दन तक पहुंचाना मौत और जिंदगी के सारे फासले को तय करने की कुव्वत दिखलाना है.

खलील जिब्रान की एक बोध कथा शायद ऐसे ही लोगों के लिए है.......

पुराने नगर अंताकिया में आसी नाम की नदी अंताकिया नगर को दो भागों में बाँटती थी.राजा सरबाओ ने आसी नदी पर एक पुल बनाकर नगर के दोनों भागों को जोड़ दिया.जब पुल बनकर तैयार हुआ तो उस पर इस इबारत का एक शिलालेख भी लगा दिया गया कि – “यह पुल अंताकिया नरेश सरबाओ ने प्रजा की सुख-सुविधा के लिए बनवाया है.”

कई बरसों तक इस पुल पर मुसाफिर आते-जाते रहे.इस पुल के जरिये अन्ताकिया नगर के दिल ही नहीं एक हो गये बल्कि नगर का कारोबार भी काफी बढ़ गया.लोग मुक्तकंठ से राजा के दयालु ह्रदय की प्रशंसा करने लगे.

एक दिन एक अस्त-व्यस्त सा युवक इस पुल पर से गुजरा.शिलालेख को देखकर वह रुक गया.उसने इस शिलालेख को उखाड़कर फेंक दिया और उस स्थान पर लिख दिया – “इस पुल को बनाने में जो पत्थर इस्तेमाल किये गए हैं उन्हें पहाड़ों से खच्चर ढोकर लाये हैं.अतः इस पुल पर यात्रा करते समय आप अंताकिया शहर के उन खच्चरों की पीठ पर चलते हैं जो इस पुल के वास्तविक निर्माता हैं.”

पुल पर सफ़र करने वाले लोगों ने इस इबारत को पढ़ा तो कुछ को हंसी आ गयी,कुछ को इस दूर की सूझ पर आश्चर्य हुआ,कुछ और भी गहराई में गए,उन्हें दार्शनिकता का पुट मिला.कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने कहा – “यह किसी खफ्ती के दिमाग का फितूर है.उसके दिमाग के पेंच ढीले हो गाए हैं,नहीं तो इस प्रकार की बेवकूफी के क्या मतलब हैं?”

पुल पर चलनेवाले मुसाफिरों की बातों को एक दिन वहां छाया में विश्राम करने वाले खच्चरों ने भी सुना तो एक दूसरे की तरफ़ गर्व और तृप्ति का आदान-प्रदान करते हुए वे आपस में कहने लगे - “इस शिलालेख में तो ठीक ही लिखा है.इस पुल के पत्थर तो हम ही ढो-ढोकर लाये हैं.राजा ने तो हुक्म भर दिया था,पुल का निर्माण तो हमारे ही जीवट से हुआ है.मगर इस दुनियां की तो रीत ही निराली है.यहाँ मेहनत की महिमा कोई नहीं गाता,सत्ता की महिमा ही सब गाते हैं.मगर इससे क्या होता है? एक न एक दिन तो खच्चरों की पैरवी करने वाला भी कोई पैदा होता है - हमारे लिए यही बहुत है.”

तो अगली बार जब आप शब्दों की तलवार चलाएं तो यह भी ध्यान रखें यह आपको भी घायल कर सकता है.

Keywords खोजशब्द : Sword of Words,Confucius,Khalil Gibran

बिन रस सब सून

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दुनियां में जिधर देखें,रस ही रस मिलता है.पृथ्वी के तीन चौथाई भाग में रस भरा हुआ है,शेष भाग में भी रस की कमी नहीं.सब तरफ रस की सरसता देखी जा सकती है.जल तो रस है ही काव्य के दस रसों के अलावा और भी अनेक रस होते हैं.आयुर्वेद में भी हेमगर्भ रस,अभृक रस,महामृत्युंजय रस आदि होते हैं.

रस लिया जाता है और दिया भी जाता है.हम सब लोग अच्छे काम,अच्छी बात में रस लेते हैं.विद्यापति की नायिका कहती है “कतमुख मोरि,अधर रस लेल”.भौरा अपनी जान की बाजी लगाकर भी रस पीता है.रसपान की तीव्रता ऐसी होती ही है –

“रसमति मालती पुनि पुनि देखि
पिबए वाह मधु जीव उपेरिव”

नायक,नायिका के मिलन रस में विद्यापति कल्पना कर लिखते हैं कि - नायक,नायिका के संयोग श्रृंगार में ‘औंधा चांद कमल का रसपान कर रहा है’.

रस आता है और रस जाता भी है.हम सब बातचीत में अक्सर कहते हैं कि उस व्यक्ति को बड़ा रस आता है या उसका रस चला गया.रस लगता है और जब किसी बात का रस लग जाता है तो बड़ा रस आता है.रस के बीच विघ्न आने पर रिस उत्पन्न होता है और रस चला जाता है.नयन तो रस से भरे ही रहते हैं,अतः कहा जाता है – “नैन सुधा रस पीजै.”

भौंरे रस के बड़े लोभी होते हैं और फूलों का रस चूसते हैं,रस पीते हैं,रस चुराते हैं.रस बरसता भी है.रस निकलता है और निकाला भी जाता है.कहते हैं कि शरद पूर्णिमा को रस बरसता है,इसलिए खीर से भरे बर्तन को खुले आकाश में रखा जाता है ताकि रस खीर में समा जाए. फलों का रस निकलता है और निकाला भी जाता है.आदमी का भी रस निकल जाता है,किसी का रस निचुड़ जाता है.किसी की आँखों में रस बरसता है,किसी की बातों में रस बरसता है.

सावन और फागुन में रस बरसता है.कवियों ने इस लिए कहा है......

रस बरसाता सावन आया,रस रंगराता फागुन आया

रस रिसता है और रस झरता है.बातों से और आँखों से रस झरता है.रस से भरे फल,रस से भरे यौवन,रसीले नेत्र,रसीले अधर रसीले नृत्य,रसीली अदाएं,रसीले छैल अच्छे लगते हैं.रस की फाग होती है तो आदमी विभोर हो जाता है......

“रंग सों माचि रही रस फाग
पूरी गलियां त्यों गुलाल उलीच में“

रस से अनेक शब्द बने हैं जो बड़े सरस हैं.रस से रसवंती बना है,जो नदी के लिए प्रयुक्त होता है.रस में परिपूर्ण होने से नारियों को भी रसवंती कहते हैं.रस से रसनिधि शब्द बना है जो समुद्र के लिए प्रयुक्त होता है –

“रसनिधि तरंगीन विराजति उगचि”.

रस रंग भी एक शब्द है.रस रंग में बड़ा आनंद आता है.खाद्य सामग्री को रसद कहते हैं.’रसभरा’ एक पौधा होता है जो ईख के खेत में होता है....

“बीच उखारी रस भरा,रस काहे न होय”

जो रस से परिपूर्ण हो उसे भी रसभरा या रसभरी कहते हैं.रस से भरी होने पर जीभ को रसना कहते हैं.’रस हाल’का अर्थ प्रसन्न या सुखी होना है.रस से ही रसीन बना है जिसका अर्थ है आभा या चमक.रसाल आम को कहते हैं.रसौ या रसा का अर्थ पृथ्वी है.रसा से ही रसातल शब्द बना है.रसराज श्रृंगार रस को कहा जाता है.रसधार जल की धारा को कहा गया है.

गौरसका अर्थ दूध,दही आदि के लिए प्रयुक्त होता है.रामरस नमक कहलाता है जिसमे बिना सब रस नीरस लगते हैं.रस से भींगे,रस में पगे,रससिक्त या रसपगे कहलाते हैं.’पनरस’ लाल रंग का एक कपड़ा होता है जिससे विवाह में गठबंधन होता है.रसगुल्ले और रसमलाई में रस भरा होता है जिसे खाने में रस आता है.रस से ‘रसज्ञ’ बना है जिसका अर्थ है ज्ञाता.

रसविभोर होकर प्राचीन काल में देवतागण सोमरस पिया करते थे.गोपियाँ कृष्ण के रस में रसमग्न हो जाया करती थीं.रसिक जन ही रस का सच्चा आनंद ले पाते हैं.रस का संचार होता है और रस की अनुभूति होती है.

मंगल अवसरों पर रस से भरे कलश सजाए जाते हैं.स्नेह भी एक रस है.दीपक की ज्योति में भी रस होता है.कभी किसी काम में रस आता है तो कभी रस फीका होता है.अनुराग को भी रस कहते हैं.युवतियों के नेत्रों में श्रृंगार रस या प्रेम रस भरा होता है.....

रस श्रृंगार मज्जन किए,कंचन भंजन दैन
अंजन रंजन हूं बिना,खंजन गंजन नैन

रस से अनेक चीजें बनती हैं जिनका रसिकजन आनंद उठाते हैं.आम से आमरस,गन्ने के रस से रसखीर या रसिया,फलों के रस से अनेक द्रव्य बनते हैं.अंगूर के रस से द्राक्षासव,फूलों के रस से इत्र बनता है.फूलों का रस और रंग रंगाई के काम आता है.जिसमें रस हो उसे सरस और बिना रस की चीज को नीरस कहा जाता है.समीर रस से वृक्ष आच्छादित होते हैं.....

“पी पीकर समीर रस तट पर एक वृक्ष है झूल रहा”

रस सरसता भी है और रस में भी रस सरसता है.........

“हंसी करत में रस गए,रस में रस सरसाय”

जीवन में जब तक रस है तभी तक उल्लास,उमंग है.रसीले बोल बोलिए,रसीली मुस्कान बिखेरिये,रसीली चितवन से बचिए और जीवन की रस धारा में डूबते उतराते रहिए.

रुके रुके से कदम

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मखमूर देहलवी ने  खूब कहा है.....

एक न एक दिन अपनी मंजिल पर पहुँच लेंगे जरूर
जो कदम उठाते हैं आसानी से मुश्किल की तरफ

कदम तो मंजिल की तरफ सभी उठा लेते हैं लेकिन मंजिल तक पहुंचने का सब में माद्दा नहीं होता.मंजिल तक पहुंचने में कई बाधाएं आती हैं लेकिन जो डटे रहते हैं वे जरूर पहुँचते हैं.सफलता आसानी से नहीं मिलती.

असफलता के नाम से हम सभी डरते हैं.सफलता,समृद्धि तभी मिलती है,जब उसके बारे में सोचते हैं.जो व्यक्ति सिर्फ असफलता की बात सोचता है,सफलता उसके बस का रोग नहीं.सफल चिंतन को ही सफलता का वरदान प्राप्त है.बुरी घटनाओं,बुरी बातों से हमेशा ग्रस्त रहना अज्ञानता है.हमारा मन बहुत जल्दी भयभीत हो जाता है.इसे मन से दूर फेंकने का एक ही रास्ता है कि हम सकारात्मक सोचें.हम चिंतन करें,चिंता नहीं.

जीवन के सफ़र में बहुत से साथी मिलते हैं.कुछ मिलते हैं,जिन्हें दो पल याद रखते हैं.कुछ साथी कुछ दिन याद रहते हैं.फिर उनकी छवि धूमिल पड़ने लगती है.यादों की धुरी में आदर्श या प्रेरणा को संयोग से व्यक्ति बहुत कम अनुभव कर पाते हैं.

कभी-कभी एक साधारण सा व्यक्ति अपनी बातों,अपने काम,और अपने व्यक्तित्व से दूसरों को इस हद तक प्रभावित कर देता है कि अनजाने में ही वह प्ररणा बन जाता है.व्यक्तित्व केवल शारीर का उपरी,उसका बोलना,चलना,उठना,बैठना इन सबके साथ-साथ व्यक्ति के व्यक्तित्व के लिए जरूरी है उसका संबंध,उसके विचारों,उसके मन और उसके भीतर छिपी शक्तियों से है.कई बार हममें आत्मविश्वास की कमी के कारण अपने सामर्थ्य पर ही भरोसा नहीं हो पाता.

अपने भीतर जब झांकते हैं तो सबसे पहले चिंता और भय की आवाज सुनाई देती है.पूरा शरीर इसी से त्रस्त दीखता है.असफलता के नाम से हम डरते हैं.आज के प्रतियोगी युग ने मनुष्य को उपहार ने निराशा दी है.मन के भीतर किसी कोने में दुबकी ये निराशा मन पर बार-बार चोट करती है.सजे सुन्दर कमरों में बैठा निराशा से ग्रस्त थका-हारा मानव बहुत जल्दी टूटने लगा है.हम अपने ही विचारों से डर गए हैं.आशा एक सशक्त चुंबक है और वह अभ्यास से प्राप्त होती है.यह हमारी सबसे बड़ी पूंजी है.

आशा का दीपक पथ प्रशस्त करता है.आशा बनी रहे,इसलिए स्वामी विवेकानंद के विचार बहुत सुंदर हैं,”वह बात मन में ही न लाओ,जो तुम व्यक्त नहीं करना चाहते.”

सुख-सुविधाओं से पूर्ण आराम का जीवन सभी को प्यारा होता है.अपने लक्ष्य को पाने के लिए जब प्रयत्न करते हैं,तब अच्छे-बुरे दोनों तरह के लोग संपर्क में आते हैं,जो लोग हमारी बुराई करते हैं,उनसे हम दूर रहना चाहते हैं.यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है.यदि हमें अपने आपको तराशना है,तो अपनी गलतियों को सुनिए,समझिए और चिंतन करिए ताकि आप मुक्ति पा सकें.

आज के मशीनी युग ने मनुष्य को यंत्रवत जीवन जीना सिखा दिया है.करुणा,दया,प्रेम,क्षमा ये सब नाम मात्र के लिए रह गई हैं.आज का चतुर मनुष्य समय के महत्त्व को पहचान चतुरता से धन कमाने की बात सोचने लगा है.सुख-दु:ख आपके अपने भीतर हैं.

हमारे मन की जो स्थिति होती है,हम हर एक चीज को उसी के रंग में रंग लेते हैं.हमारे मन के भाव सुंदर हैं तो चीज भी सुंदर है और हमारी मनस्थिति असुंदर तो चीज भी असुंदर जान पड़ती है.हमें अपने लक्ष्य की और बढ़ना है,पर यंत्रवत नहीं बल्कि अपने भीतर छोटी-छोटी खुशियों को समेटकर आगे बढ़ें.

व्यक्तित्व को उभरने के लिए आत्मविश्वास साहस का पर्याय है.मनुष्य की महानता साहस से मापी जाती है.शेक्सपियर ने कहा है कि,’साहस अवसर पहचानता है.’ हर रात सोने से पहले यह सोचें कि ‘मैं कर सकता हूँ और करूंगा.’ आत्मविश्वास से साहस की भावना पढ़ती है.लड़खड़ाते क़दमों से मंजिल तय नहीं की जा सकती है.कार्लाइल का कहना है कि ‘अपने काम को समझो और फिर दानव की तरह उस पर पिल पड़ो.’अपने आप जब अपने मन से बातें करते हैं तो शरीर के सेलों से घृणा,झूठ की बात न करके श्रेष्ठ भावना की बात करें.

मकड़ी के जालों की तरह विचार हमारे चारों ओर मंडराते हैं.अपने आपको प्रधानता देने के लिए बार-बार हमारी सोच अपने आप पर केंद्रित हो जाती है.दिन भर में ढेर सारे सही-गलत कार्यों को करने के बाद आत्मचिंतन जरूरी है.आदर्शों के विरुद्ध कोई भी काम करने पर मन में अंतर्द्वंद च्क्ल्ता रहता है.इससे बाहर निकलने के लिए जरूरी है कि अपनी गलती को स्वीकार कर आगे बढ़ने का प्रयास किया जाय.

अपने भीतर जो भी सृजन का अंकुर फूटा है,उसे दबाएं नहीं.कला,चित्रकारी,लेखन,कविता जिस भी रूप में धारा प्रवाहित हो उसे बहने देना ही उचित है.हम स्वयं ही पहचान सकते हैं कि कला का कौन सा कोना अपने मन को छूता है.जीवन अमूल्य है,समय की गति के साथ अपनी रचनात्मक क्षमता को पहचानना चाहिए.

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इक हंसी सौ अफ़साने

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“आह ! तुम्हारे उजले दांतों के बीच फंसी दूब के साथ
वह हंसी आज भी मेरी नींद में गड़ती है.”

प्रसिद्ध कवि स्व. शमशेर बहादुर की यह पंक्तियाँ हमारे मानवीय जीवन के अन्तःस्थल में हंसी की परतें भले ही न खोलती हों,पर हंसी के भीतर छिपे प्रेम के आशय को जरूर प्रकट करती हैं,जो आदमी की नींद में भी दूब की तरह गड़ रही है.

आमतौर पर जब हम मुस्कुराते हैं उसका सामान्य आशय हम दुसरे के प्रति प्रेम प्रकट करते हैं या प्रसन्न होते हैं.इसलिए सामान्य हंसी के पीछे छिपी होती है- हमारी प्रसन्नता.मसलन जब किसी किलकते हुए बच्चे को देखकर मां हंसती है,दो हमजोली बच्चे गेंद पाने पर एक साथ उछलकर हँसते हैं या जब हमारी कोई प्रिय चीज खो जाए और हम उसे बेतहाशा खोज रहे होते हैं,लेकिन कई दिनों के बाद वह अचानक मिल जाए तो हम अकेले ही प्रसन्न होकर हंस पड़ते हैं.

हंसी का सामान्य मनोविज्ञान तो यही है कि हमारे हंसने में दूसरे का शामिल होना जरूरी है.हम अकेले नहीं हंस सकते.हम प्रायः किसी दुखी व्यक्ति को यह कहता हुआ पाते हैं कि,उसकी हंसी महीनों से गायब है.पर हंसी का असामान्य पक्ष भी है और उसका आशय समझ पाना बेहद कठिन है.एक असामान्य मस्तिष्क का व्यक्ति अँधेरे में अकेले या भीड़ में सार्वजनिक रूप से हँसता दिखाई पड़ जाता है तो उसके असामान्य हंसी की वजह कुछ और है.

आज दुनियां में असामन्य हंसी के अध्ययन को लेकर कई मनोवैज्ञानिक कार्य कर रहे हैं,लेकिन वे आज तक उन आसामान्य हंसी के अर्थ को आज तक नहीं समझ पाए.सामान्य हंसी का आशय यदि सहज प्रसन्नता है तो असामान्य हंसी का कारण प्रायः दुःख,दुविधा,द्वंद और भयानक अत्याचार हो सकते हैं. प्रायः देखा जाता है कि जब व्यक्ति बहुत बड़े दुःख और मानसिक यंत्रणा से गुजर रहा होता है तब अपने दिल का हाल हंसकर बताता है.

यह भी विचार करना जरूरी है कि एक दुखी व्यक्ति को अपनी पीड़ा का बयान रोकर करना चाहिए या दुखी आहत स्वर में,पर उसकी जगह वह हंसी को चुनता है.वह हंसी को इसलिए चुनता है कि दुःख को बयान करने के सारे शब्द अपर्याप्त लगते हैं,तब वह हँसते हुए हलके-फुल्के शब्दों से खेल करता है. दरअसल इस हंसी के पीछे एक बड़ा दुःख रिसता हुआ व्यक्ति की वाणी में हंसी का ज्वार छोड़ता है.  

हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन स्व. राज कपूर की प्रसिद्ध फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ की याद हम सबको है.उस फिल्म का मुख्य पात्र  जिंदगी की ‘सर्कस’ का ‘जोकर’ है.जब भी उसके जीवन में विडंबना और ट्रेजेडी के मोड़ दिखाई पड़ते हैं,तब वह ठहाका मारकर हंस पड़ता है.पूरी फिल्म में जोकर के बहाने राजकपूर की हंसी किसी रबाब की तरह बजती रहती है.पर जब उसे अकेलापन घेरता है तब वह खामोश हो जाता है.उस जोकर की हंसी में जिंदगी की अनेक दगाबाज ट्रेजडियां हैं,जिसे भुलाकर वह हमेशा हंसने का अभिनय करता है.

नाटक मंडलियों में जोकर को हमेशा हँसते,मजाक करते,दूसरों को हंसाते हुए पाते हैं.पर उस मजाकिए हंसोड़ और मुंहफट जोकर की जिंदगी में झांकें तो पाते हैं कि वह अपने सीने में कितने गम छिपाए हुए है जिसे दबाकर वह जिंदगी के नाटक में एक विवश कथानक बनकर मंच पर हंस रहा होता है.पर उसकी हंसी के भीतर छिपा है - अथाह दुःख भरा सैलाब और सन्नाटा.

प्रसिद्ध इजराइली संतजरथुस्त्रने अपने एक शिष्य से कहा था कि – “मुस्कुराना किसे बुरा लगता है किंतु बेवजह मुस्कुराना आपकी संस्कृति के खिलाफ जाता है.” मुस्कुराना तभी न्यायसंगत है जब आपकी मुस्कराहट का प्रभाव दूसरे के अंतर्मन में बैठ जाय.मुस्कान तो आत्मविश्वास की की कुंजी है जिससे समस्याओं के बड़े से बड़े भवन सामान्यतः खुल जाते हैं.

प्रसिद्ध हास्य अभिनेता चार्ली चैपलिन के बारे में कहा जाता है कि वे दुनियां के बेजोड़ हास्य अभिनेता थे.उनके अभिनय में हंसी के फव्वारे या फुलझड़ियाँ ही नहीं फूटती थी बल्कि उनके अभिनय में व्यंग्य और विडंबना का समुद्र हिलोरें मारता था.एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि दरअसल मेरी हंसी के पीछे छिपी होती है मेरी जिंदगी की असफलताएं.मैं अपने हंसी भरे अभिनय में अपनी असफलता को छिपाने की कोशिश करता हूँ.मुझे संतोष है कि मेरी असफलता को छिपाने की कला आज तक दर्शक नहीं जान पाए.

चार्ली चैपलिन के इस वक्तव्य में यह आशय छिपा है कि जिंदगी के मंच पर जो खूब हंसता दिखता है,वह रोता हुआ नेपथ्य में ओझल हो जाता है.प्रसिद्ध कवि और नाटककार ब्रेख्तने अपनी एक कविता में कहा था कि ‘जो लोग हंस रहे हैं उन्हें अभी भयानक खबर सुनायी नहीं गयी है.’

अक्सर जब हम दुःख और अवसाद में डूबे आदमी की असामान्य हंसी सुनते हैं तो ताड़ जाते हैं और पूछते हैं कि,क्या बात है? और वह मुंह फेरते हुए जवाब देता है,कुछ नहीं......हम देर तक उसके अधूरे वाक्य का पीछा करते हैं और उसकी हंसी के पीछे दुःख को पकड़ने की कोशिश करते हैं.

जैसे-जैसे जमाना बदल रहा है मनुष्य के स्वभाव में भी काफी परिवर्तन आ रहा है.अक्सर महानगरों में रहने वाले लोगों के बारे में धारणा है कि शहर के लोग हँसते कम हैं.कई बड़े लोग सार्वजनिक रूप से हंसना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं.आम जनजीवन में बेवजह हंसना मूर्खता का प्रतीक भी है और कई जगह उसे आज के तनावपूर्ण जीवन में बेहद स्वास्थ्य के लिए उपयोगी माना गया है.

हंसी के समानांतर मुस्कान सुंदरता का एक अनिवार्य उपकरण हो गया है.उपभोक्तावादी संस्कृति में यह व्यवसाय के रूप में उभर रहा है.विश्व के सौन्दर्य और मुस्कान की चर्चा जब भी होती है तो मोनालिसा की मुस्कान को अप्रतिम माना जाता है.

किसी शायर ने वाजिब ही कहा है .......

खामोश बैठें तो कहते हैं इतनी उदासी अच्छी नहीं 
जरा हंस लें तो मुस्कुराने की वजह पूछ लेते हैं 

चम्मच नियरे राखिए....

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आजकल आदमी से ज्यादा चर्चा चम्मचों की होती  है,कोई समझ नहीं पाता कि चमचे इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं कि उनकी सार्वजनिक रूप से चर्चा हो.शायद चम्मच शब्द से चमचा बना होगा.जब से हमें आधुनिक होने का भ्रम होने लगा,चम्मच हमारे जीवन में प्रवेश कर गया.डाईनिंग टेबल के साथ-साथ चम्मच हमारे जीवन में प्रवेश कर गया.इससे पहले तो हम पीढ़े या मोढ़े पर बैठकर खाना खाने के आदी रहे हैं.

चम्मच परिवार में कई भाई-बहन हैं.ज्यादातर चम्मच से बड़े हैं,उनकी चर्चा कभी नहीं होती.दरअसल उन भाई-बहनों का कार्य भोजन बनाने और टेबल पर सुव्यवस्थित करने का है.ये भाई-बहन कड़छा,बटलोई, खोंचा आदि हैं.इन्हें भोजन करने के काम में नहीं लेते.चम्मच ही ऐसा उपकरण है जो भोजन के समय काम में लाया जाता है.

चम्मच भी कई प्रकार के हैं.आजकल टेबल पर चम्मच का उपयोग तो होता ही है,बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों,बड़े अभिनेताओं,अधिकारियों और सुविधाभोगी वर्ग के अलावा अघोषित राष्ट्रीय खेल क्रिकेट में भी मनुष्य रूप चमचों का उपयोग होने लगा है और यही कारण है कि चमचों के मूल्य में भारी वृद्धि हुई है.चम्मच उपयोगिता और हैसियत के अनुसार रखे जाते हैं,वे स्टील के भी हो सकते हैं और चांदी के भी.

सोने के चम्मचों के जिक्र नहीं मिलता.यदि सोने के चम्मच होते तो उनकी चोरी के अनेक किस्से मिलते.चम्मच छोटे,बड़े,मध्यम आकार के हो सकते हैं,किन्तु उनकी बनावट और चरित्र में भी अंतर पाया जाता है,जो जब उपयोग में लाया जाए तभी महत्वपूर्ण होता है.चम्मच की अपनी कोई उपयोगिता नहीं होती.अवसर उनकी उपयोगिता का निर्धारण करता है.चम्मच चौड़े मुंह का,गोल,आड़ा कटा,तिरछा भी हो सकता है.चम्मच अवसर पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हैं.

यदि आप चिंतन करें तो पाते हैं कि चम्मच में बड़े-बड़े गुण हैं.चमचे आदमी के स्तर को सूचित करते हैं.सामान्य स्तर का आदमी एक सेट चमचे ही रखता है किंतु उच्च श्रेणी के राजनेता के असंख्य चमचे पाए जाते हैं.बड़े राजनेता के चमचे डायनिंग टेबल के साथ बदल जाते हैं.यह उसकी सुधा का सवाल है,किंतु राजनेता का स्तर हमेशा उसके उपलब्ध चमचों से नापा जाता है.

चमचे वह कार्य करते हैं जो कोई कर ही नहीं सकता.चमचे अपने चहेते व्यक्ति के हाथ में आकर उसके मुंह तक भोजन पहुंचाते हैं.चाहे वह रिश्वत खाएं या अन्न,चमचे उनके मुंह तक ले जाकर ही संतुष्ट होते हैं.वे अपने चहेते राजनेता या अधिकारी के हाथ गंदे नहीं होने देते.जमकर खाएं फिर भी कोई साक्ष्य न रहे इस बात की गारंटी चमचे ही देते हैं.इसलिए बदनामी का ठीकरा उन्हीं के सर फूटता है.

चम्मच सदा से ही निःस्वार्थ सेवा करते हैं.कितना ही गर्म मसाला हो वे अपना सर उसमें डाल देंगे और माल उठाकर मालिक तक पहुंचा देंगे.कभी उसमें हिस्सा नहीं मांगेंगे.वे कितने ही कष्ट उठाएं अपने मालिक के आगे कभी इसका उल्लेख नहीं करेंगे.

वे अपनी समस्त सफलताओं का अधिकारी अपने हितकारी को मानते हैं.स्वाद लेने का अधिकार चमचे को नहीं है,वह तो अपने आका को स्वाद पहुंचाने का कार्य करते हैं.चमचे इस मामले में मौन साधक हैं.वे अपने उल्लेखनीय कार्यों का कभी उल्लेख नहीं करते.

चमचे बड़े त्यागी होते हैं.वे अपना काम करने के बाद,कहीं भी रखिए,चुपचाप पड़े रहते हैं.वे कभी मांग पेश नहीं करते.वे भाग्य के भरोसे रहते हैं.बारह बरस में घूरे के दिन फिर जाते हैं पर उनके भी भाग्य फिरेंगे,यह उनका विश्वास रहता है.

ऐसा भी नहीं है कि चमचे मौन रहकर सब चुपचाप सहन करते हैं,इसलिए उनका कोई मूल्य नहीं है.चमचों को संभालकर रखना अपने आप में बड़ी जिम्मेवारी वाला काम है.जरा सी गफलत हुई और अच्छा-भला चमचा गायब.चम्मचों की सफाई,धुलाई का नित्य प्रतिदिन का कार्य होता है.समझदार व्यक्ति चमचों की धुलाई,सफाई कर न सिर्फ उन्हें चमकाता है,उन्हें ऊँचे स्थान पर स्थापित भी करता है.वे चमकते-दमकते, अच्छे स्थान पर काबिज  होकर चमचे रखने वाले की प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं.

चमचे रखना एक गंभीर मामला है,यदि चमचा उचित स्थान पर स्थापित न किया जाय,उसके साफ़-सफाई एवं स्वच्छता पर ध्यान न दिया जाय तो वह चमचा खतरनाक सिद्ध हो सकता है,वह स्वास्थ्य बिगाड़ सकता है,उसे देखकर उसके आका की इज्जत दो कौड़ी की हो सकती है,वह भले ही कुछ बोले नहीं लेकिन उसका अबोला भी अत्यंत महत्वपूर्ण होता है.

चमचे रखना साधारण आदमी का काम नहीं है.आम आदमी चमचों के प्रति उत्सुक तो रहता है,किंतु चमचा बनना पसंद नहीं करता.हर कोई चमचे के प्रति घृणा या मजाक की धारणा बनाए रखना दिखाता है पर कौन कब अनायास चम्मच धर्म निभाने लगता है,कोई नहीं जानता.बुद्धिहीन चमचे जब किसी बड़े आदमी के हाथ में पड़कर चमकते हैं तो अच्छे विचार करने लगते हैं कि काश ! हमें भी यह सौभाग्य मिलता.वीतरागी और वैराग्य धारण करने वाले भी आजकल चमचे रखने लगे हैं.चम्मच आधुनिक युग की आवश्यकता है,कह सकते हैं कि यह एक आवश्यक बुराई है.

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सोप-ऑपेरा की दुनियां

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सोप-ऑपेरा  हमलोग का एक दृश्य 
भारत में ऑपेरा तमाशा,नाचा तथा पवाड़ा के रूप में सदियों से प्रचलित है.इस विधा में किसी नाटक या गाथा को गा-गाकर एवं अभिनय के साथ दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है.आज भी यह विधा उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में खूब प्रचलित है.तत्कालीन प्रथा के परिप्रेक्ष्य में पांडवानी गायन भी इसका एक उदहारण है.हममें से अधिकांश ने तीजन बाई का नाम खूब सुना है और प्रत्यक्ष रूप से या टी.वी पर उन्हें लम्बे समय तक पांडवानी के रूप में महाभारत की कथा को एक नए अंदाज में प्रस्तुत करते और सराहे जाते देखा है.

एक अमेरिकी कंपनी ने अपने एक प्रोडक्ट,एक साबुन यानि सोप और पाउडर के प्रचार के लिए एक नाटकीय ढंग अपनाया और उसके विज्ञापन अमेरिकी टी.वी से प्रसारित किया.अमेरिका में उस समय महिलाएं दिन में घर में ही होती थीं.उसे देखने वाली महिलाएं इन विज्ञापनों से प्रभावित होतीं और इस कंपनी के प्रोडक्ट को घर-घर बेचा करती थीं.विज्ञापन का यह तरीका काफी सफल रहा.

इस सोप के प्रचार यानी सोप-ऑपेरा के दौरान अमेरिकी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्णधारों को कुछ नया करने को सूझा.चिकने संगीतमय प्रोडक्ट के विज्ञापन से प्रभावित होकर चिकने संगीतमय नाटक लिखे गए.कुछ ही वर्षों में अमेरिकी टी.वी द्वारा पंद्रह मिनट का धारावाहिक प्रसारित किया जाने लगा,और यह काफी लोकप्रिय हुआ.अमेरिका में औद्योगिक संस्कृति के पनपने के कारण लेखकों तथा कलाकारों के लिए विज्ञापनों के अलावा और कोई प्रगतिशील राह नहीं थी.फलतः वे लोग अमेरिका से पलायन करने लगे छठवें दशक के बाद औद्योगिक नीति में सुधार हुआ,जिससे लेखकों,पत्रकारों तथा कलाकारों को नया रचनात्मक कार्य मिलने लगा.

हले अमेरिका में सोप-ऑपेरा केवल महिलाओं तक सीमित था,किंतु अब यह पुरुषों के लिए भी काफी आकर्षक हो गया है.बंगाल में सत्यजीत रे ने ‘पाथेर-पांचाली’ में कुछ हद तक सोप-ऑपेरा का प्रयोग भी किया है.सत्यजित रे को ऑस्कर अवार्ड से भी नवाजा गया.

यदि हम अपने लोक-गाथाओं के कलाकारों पर विचार करें तो यह पता चलता है कि वे सोप-ऑपेरा शब्द को भी नहीं जानते,किन्तु वे उसकी अभिव्यक्ति लोकगाथाओं के माध्यम से गा-गाकर, नाचकर,नाटकीयता के साथ खूब अच्छी तरह से करते हैं.भारत में सोप-ऑपेरा का चलन सदियों पुराना है जो सुषुप्तावस्था में था और छठे-सातवें दशक में पुष्पित-पल्लवित होकर नए रूप में सामने आया है.

महाराष्ट्र में अक्षय तृतीया का त्यौहार बड़े तामझाम के साथ मनाया जाता है.इस त्यौहार में झूले डाले जाते हैं और महिलाएं झूला झूलते हुए कभी रोमांटिक,तो कभी ठिठोली भरे गीत गाती हैं.इसी तरह सावन में सारे भारत में झूले पड़ते हैं और प्रेम के रस से सराबोर गीत परवान चढ़ते है.आज औद्योगीकरण के कारण न तो शहरों में अक्षय तृतीया पर झूले पड़ते हैं और न सावन के महीने में.अक्षय तृतीया सिर्फ सोने-चांदी की खरीददारी तक सीमित होकर रह गयी है.

भारत में आधुनिक नाटकीय सोप-ऑपेरा लाने में तत्कालीन दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी मनोहर सिंह गिल का विशेष हाथ रहा है.अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने सोप-ऑपेरा से संबंधित जानकारी मनोहर श्याम जोशी को सौंपी थी.मनोहर श्याम जोशी को भारत में आधुनिक सोप-ऑपेरा का जनक माना जाता है. उनके लिखे हमलोग,बुनियाद तथा हमराही जैसे सफलतम सोप-ऑपेरा धारावाहिक रूप में दूरदर्शन से प्रसारित हुए और बेहद लोकप्रिय हुए.इनके कलाकार घर-घर में जाने-पहचाने हो गए और मोहल्ले,गली चौराहों पर इनकी चर्चा होने लगी.

सोप-ऑपेरा में वस्तुतः जीवन की सूक्ष्म भावनाओं का समावेश होता है.इसमें यथार्थ जीवन के सामाजिक परिवारों के सुख-दुःख की भाव प्रवणता,नाटकीय एवं अति-नाटकीयता  होती है.इसमें चिकनी चुपड़ी चापलूसी,प्रेमालाप को वास्तविकता का पुट दिया जाता है.जिस तरह सोप यानि साबुन में झाग होता है,उफ़ान होता है,चिकनाहट होती है.उसी तरह सोप-ऑपेरा में ऐसा ही सब कुछ होता है यानी वह रूपक है,चापलूसी,जी-हुजूरी,चिकनी-चुपड़ी बातों का.

जिन पारिवारिक रचनाओं में साबुन के झाग के सामान भावनाओं को उभारकर जो कड़ियां टी.वी द्वारा प्रसारित की जाती हैं,उसे सोप-ऑपेरा कह सकते हैं.ऑपेरा अर्थात संगीतमय नाटक,जिसमें वाद्य-यंत्रों के साथ दर्शकों के समक्ष नाटकीय प्रहसन का प्रस्तुतीकरण होता है.

सोप-ऑपेरा विधा में लेखक को काफी स्वतंत्रता मिल जाती है.पटकथा में वह अपने पात्रों का क्रिएशन विभिन्न रूप में कर सकता है.कोई भी नेगेटिव पात्र पॉजिटिव या हीरो पात्र की ओर लुढ़क सकता है.किस पात्र को प्राथमिकता दी जाए,उसके लिए भी पटकथा लेखक स्वतंत्र है. 

हंसना,रोना,झगड़ना,रूठना,मनाना आदि भावों को पात्रों में कूट-कूटकर भरा जा सकता है.यों कह सकते हैं कि सोप-ऑपेरा में थोड़ा रोना,थोड़ा हंसना,थोड़ी पारिवारिक     कलह,आदर्श,स्वार्थीपन,जोशिलापन,रसिकता,ताने और कुछ सस्पेंस भी होने चाहिए.

यह चौराहे पर लगे सार्वजानिक सूचना देने वाले होर्डिंग की तरह है जो चलते-फिरते लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है. 
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